Wednesday 5 December 2018

सूरह ज़ुख़रूफ़-43 - سورتہ الزخرف (क़िस्त 1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह ज़ुख़रूफ़-43 - سورتہ الزخرف
(क़िस्त 1)
  
मौजूदा  साइंस की बरकतों से फैज़याब दौर के लोगो! 
ख़ास कर मुसलमानों!!
एक बार अपने ख़ुदा के वजूद का तसव्वुर अपनी ज़ेहनी सतह पर बड़ी ग़ैर जानिब दारी से क़ायम करो. बस कि सच का मुक़ाम ज़ेहन में हो. 
सच से किसी शरीफ़ और ज़हीन आदमी को इंकार नहीं हो सकता, 
इसी सच को सामने रख कर ख़ुदा का वजूद तलाशो, 
हमारे कुछ सवालों का जवाब ख़ुद को दो.
1-क्या ख़ुदा हिदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और दीगर मज़ाहिब के हिसाब से जुदा जुदा हो सकता है?
2- क्या ख़ुदा भारत, चीन, योरोप, अरब, अमरीका और जापान वग़ैरह के जुग़राफ़ियाई एतबार से अलग अलग हो सकता है?
3- क्या ख़ुदा नस्लों, तबकों, फिरकों, संतों, गुरुओं, पैग़मबरों और क़बीलों के एतबार से जुदा जुदा हो सकते हैं?
4- समाज के इज्तेमाई (सामूहिक) फ़ैसले के नतीजे से बरआमद ख़ुदा, 
क्या हो सकता है?
5- खौफ़, लालच, जंग ओ जेहाद से बरामद किया हुआ ख़ुदा क्या सच हो सकता है?
6- क्या ज़ालिम, जाबिर, ज़बर दस्त, मुन्तकिम, चालबाज़, गुमराह करने वाली हस्ती ख़ुदा हो सकती है?
7- पहले हमल में ही इंसान की क़िस्मत लिख्खे, फिर पैदा होते ही कांधों पर आमाल नवीस फ़रिश्ते मुक़र्रर करे. इसके बाद यौमे हिसाब मुनअक़िद करे, क्या ऐसा कोई ख़ुदा हो सकता है?
8-क्या ख़ुदा ऐसा हो सकता है जो नमाज़, रोज़ा, पूजा पाठ, चढ़ावाया और प्रसाद वग़ैरह का लालची हो सकता है?
9- क्या ख़ुदा कोई हो सकता है कि जिसके हुक्म के बग़ैर पत्ता भी न हिले?
तो क्या तमाम समाजी बुराइयाँ इसी का हुक्म हैं ? 
तब तो दुन्या के तमाम दस्तूर इसके ख़िलाफ़ हैं.
10- कहते हैं ख़ुदा के लिए हर कम मुमकिन है, क्या ख़ुदा इतना बड़ा पत्थर का गोला बना सकता है, जिसे वह ख़ुद न उठा पाए?
मुसलमानों! इन सब सवालों का सही सही जवाब पाने के बाद तुम चाहो तो बेदार हो सकते हो.
जगे हुए इंसान को किसी पैग़ामबर या मुरत्तब किए हुए अल्लाह की ज़रुरत नहीं होती है, जगे हुए इंसान के का रहनुमा ख़ुद इसके अन्दर विराजमान होता है.
याद रखो तुम्हारे जागने से सिर्फ़ तुम नहीं जागते, बल्कि इर्द गिर्द का माहौल जागेगा, चिराग़ जलने के बाद सिर्फ़ चिराग़ रौशनी में नहीं आता, 
बल्कि तमाम सम्तें रौशन हो जाती हैं.
महक़ उट्ठो अपने अन्दर की ख़ुशबू से. 
लाशऊरी तौर पर तुम अपनी इस ख़ुशबू को ख़ारजी रुकावटों के बायस पहचान नहीं पाते. ये ख़ुशबू है इंसानियत की. मज़हब तो ख़ारजी लिबास पर इतर का छिड़काव भर है.
छोडो इन पंज रुकनी लग्वियात को. और इस पंज वकता खुराफ़ात को,
मैं देता हूँ तुम्हें बहुत ही आसान पाँच अरकान ए हयात.
1-सच को जानो. सच के बाद भी सच, सच को ओढ़ो और सच को बिछाओ, 
2- मशक्कत, का एक नवाला भी अपने या अपने बच्चों के मुँह में हलाल है, 
मुफ़्त या हराम से मिली नेमत मुँह में मत जाने दो.
3- जिसारत, सदाक़त को इरादे की बहुत सख़्त ज़रुरत होती है, 
वैसे सदाक़त अपने आप में जिसारत है.
4. प्यार- - - इस धरती से, धरती की हर शै से और ख़ुद से भी.
5- अमल- - -  तुम्हारे किसी अमल से किसी को ज़ेहनी या जिस्मानी या फिर माली नुकसान न हो.
 बस.

"हा-मीम"
सूरह ज़ुख़रूफ़ -43 आयत (1)

मुह्मिल यानी अर्थ हीन शब्द है. वैसे तो पूरा क़ुरआन ही अर्थ में अनर्थ है, 
नाइंसाफी और जब्र है.

"क़सम है इस किताब वाज़ेह की कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझ लो और हमारे पास लौहे महफ़ूज़ में बड़ी हिकमत भरी किताब है. क्या तुम से  इस नसीहत को, इस बात से उठा लेंगे कि तुम हद से गुज़रने वाले हो."
सूरह ज़ुख़रूफ़ - 43 आयत (2-5)  

अल्लाह अपने इस किताब की क़सम खाता है क्यूँकि ये अरबी ज़बान में है. 
न क़सम खाता तो भी इसे अरबी ज़बान में ही ज़माना देख रहा है. 
अब तो हर ज़बान में इस रुस्वाए ज़माना किताब वाज़ेह उरियाँ हो रही है.
मुहम्मद के ज़ेहन पर अरबी ज़बान का भूत काबिज़ है कि जिसे ये बार बार दोहरा रहे हैं.
लौह यानी पत्थर कि स्लेट जिस पर इबारत खुदी हुई हो. 
मूसा को ख़ुदा ने दस इबारत खुदी हुई पत्थर की पट्टिका दी थीं 
"The Ten comondments " 
जो अरब दुन्या में मशहूर ए ज़माना था. 
उसी को मुहम्मद अपने कलाम में बार बार गाते हैं कि ये क़ुरआन पत्थर की लकीर है, इस की फोटो कापी कर के जिब्रील लाते हैं.
वह कहते है कि क्या अल्लाह इससे बाज़ आएगा कि उसकी बात नहीं मानते, 
कभी नहीं. 
गोया अपने अल्लाह की बे गैरती बतला रहे हैं.
एक गावँइ  कहावत है हालांकि फूहड़ है जिसे ज़द्दे क़लम में न लाते हुए भी लाना पड़ रहा है, अल्लाह की संगत का असर जो है कि वह बार बार अपने फूहड़ कलाम में फूहड़ पन को दोहराता है. 
कहावत यूं है कि "रात भर गाइन  बजाइन, भोर माँ देखिन तो बेटा के छुन्याँ ही नहीं" यही कहावत लागू होती है  क़ुरआन पर कि इसकी तारीफ़ो के पुल बांधे है मगर पुल के नीचे देखा तो नाली बह रही थी.  
क़ुरआन में कुछ भी नहीं है सिवाए ख़ुद की तारीफ़ के. 

"और उन लोगों ने अल्लाह के बन्दे में अल्लाह का जुज़ ठहराया दिया और उनहोंने फ़रिश्तों को जो कि अल्लाह के बन्दे है, औरत क़रार दे रख्खा है. क्या इनकी पैदाइश के वक़्त मौजूद थे? इनका ये दावा लिख लिया जाता है और क़यामत के दिन इनसे बाज़ पुर्स होगी."
सूरह ज़ुख़रूफ़ - 43 आयत (19)

इशारा ईसाइयत की तरफ़ है जो फ़रिश्तों को इंसान से हट कर वह मासूम मख़लूक़ मानते हैं जो कोई जिन्स नहीं रखते. ऊपर मैंने कहा था कि अल्लाह  क़ुरआन फूहड़ पन से भरा हुवा है,.इसी आयत में यह बात आ गई कि फूहड़ मुहम्मद ईसाइयों से पूछते है कि फ़रिश्ते जब जन्म ले रहे थे तो क्या यह लोग खड़े इनका जिन्स देख रहे थे. इनसे पूछा जा सकता है कि जब अल्लाह इन्हें पैग़ामबर बना रहा था तो कोई गवाह था. इनकी झूटी गवाहियाँ अज़ान और नमाज़ों में तो हर रोज़ दी जाती है.

"और वह लोग यूँ कहते हैं कि अगर अल्लाह चाहता तो हम लोग उन (बुतों) की इबादत न करते. उनको इसकी कुछ तहक़ीक़ नहीं, सब बे तहक़ीक़ बातें करते है. क्या हमने उनको इससे पहले कोई किताब दे रख्खी है कि वह इससे इस्तेद्लाल करते. और कहते हैं कि अगर  क़ुरआन अल्लाह का कलाम है तो दोनों बस्ती मक्का और तायफ़ के किसी बड़े आदमी पर क्यूँ  न नाज़िल किया गया. क्या ये लोग अपने रब की रहमते नबूवत को तक़सीम करना चाहते है?"
सूरह ज़ुख़रूफ़ - 43 आयत (20-21+31-32)

लोगों का सीधा और वाजिब सवाल और मुहम्मद का टेढ़ा और ग़ैर वाजिब जवाब. मक्का के लोगों का कहना था कि वह पैग़मबरी को तक़सीम ओ ज़रब नहीं करना चाहते थे, वह सिर्फ़ इतना चाहते थे कि  क़ुरआन अगर वाकई अरब में और अरबी ज़बान में आई होती तो किसी संजीदः, सलीक़े मंद, पढ़ा लिखा, नेक तबा, शरीफुन-नफ्स, अम्न  पसंद, ईमानदार, साहिबे किरदार, साहिबे इंसाफ, साहिबे फ़िक्र के हिस्से में आती, न कि किसी झूठे और शर्री के हिस्से में.

कलामे दीगराँ - - -
"मैं कहता आँखन की देखी, तू कागत की लेखी"
"कबीर"
इसे कहते हैं कलाम पाक 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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