Thursday 15 August 2019

मांसाहार

मांसाहार                

बड़े बड़े ज्ञानी और कभी कभी तो विज्ञानी भी जीव आहार के बारे में 
अज्ञानता और भावुकता पूर्ण बातें करते हैं. 
स्वयंभू बाबा और स्वामी राम देव तो कहते हैं 
मुर्गा नहीं तुम मुर्दा खाते हो, 
ख़ैर ऐसे कुबुद्धों की बात छोडें जिसका ज्ञान प्रमाणित करता हो कि भारत में आयुर्वेद को लाखों, करोरों वर्षों से चला आ रहा है, बतलाते हैं. 
जिनको यह भी नहीं मालूम कि भारत क्या दुन्या को लोहे का ज्ञान भी 
केवल पाँच हज़ार साल पहले तक नहीं था 
और करोरों साल पहले यह धरती जीव धारियों के रहने योग्य हो रही थी. 
राम देव योग्य द्वरा डायबिटीज़ और कैंसर आदि को ठीक करने का दावा करते हैं मगर अपने मुखार बिंदु पर मारे गए लक़वे का इलाज नहीं कर पाते. 
उनके पीछे चलने वाली भेड़या धसान जनता को क्या कहा जाय 
जो दूध में देख कर मक्खी को पीती है. 
मगर जब अग्निवेश जैसे अच्छे, प्यारे और मानवता मित्र मांसाहार को ग़लत क़रार देते है तो ताजुब और अफ़सोस होता है.

आहार भावुकता नहीं, क़ानून क़ायदा नहीं, मज़हबी और धार्मिक पाखण्ड का दायरा नहीं, आहार भौगोलिक परिस्थितयों की मजबूरी है, 
आहार जल वायु के माहौल का तक़ाज़ा है. 
आहार क़ुदरत के नियमों में एक प्राकृतिक नियम है. 
आहार मन की उमंग "जो रुचै सो पचै" है, 
आहार के बारे में विशेष परिस्थितयों में डाक्टर के सिवा किसी को राय देना ही व्योहारिक हक़ नहीं है, उसकी आज़ादी में यह दख़्ल अंदाजी है.
दुन्या का हर जीव किसी न किसी जीव को खाकर ही अपना जीवन बचाता है. 
कोई जीव जड़ (निर्जीव खनिज एवं पत्थर) को खा कर जीवन यापन नहीं कर सकता. 
ग़ौर करें कि पर्शियन फ़िलासफ़ी के अनुसार जीव मुख्यता निम्न चार प्रकार के होते हैं - - -
1-हजरते-इंसान यानी अशरफ़ुल मख़लूक़ात 
(हालाँ कि जिसे नेत्शे धरती का चर्म रोग बतलाता है)
2-हैवानयात यानी जानवर, पानी और ज़नीन के जीव जन्तु
3-बनस्पति
4-खनिज (हालाँकि इन्हें जीव नहीं कहा जा सकता मगर जीव के पोषक हैं)

मैं सबसे पहले जीव नं 4 को लेता हूँ कि यह बेचारे भूमि के गर्भ में पड़े रहते हैं और बनस्पति को अपनी ऊर्जा सप्लाई किया करते हैं. 
विभिन्न प्रकार के दानो की लज्ज़त, फलों का स्वाद और फूलों कि ख़ुशबू, 
इन्हीं गड़ी हुई खनिजों की बरकत है. 
अरब में खजूरें बहुत होती हैं, हो सकता है कि 
वहां पाई जाने वाले डीज़ल की बरकत हो. 
इसी तरह संसार में हर हर हिस्से में पाए जाने वाली खनिजें 
उस जगह की पैदावार हैं. यह खनिजें चाहती हैं कि इन का भरपूर दोहन हो. 
इन के दोहन से ही दुन्या शादाब हो सकती है.
ये है क़ुदरत का कानून.
अगर खनिज को आप ने जड़ नुमाँ अर्ध जीव मान लिया हो तो आगे बढ़ते हैं.  

जीव की तीसरी प्रजाति यह बनस्पतियाँ हैं. 
जी हाँ! ये सिद्ध हो चुका है इनमें जान है, एहसास है जीने की चाह है, 
उमंग और तरंग है, फ़र्क़ इतना है कि यह हरकत के लिए हाथ पाँव नहीं रखते, 
प्रतिवाद के लिए ज़बान नहीं रखते, 
ख़ामोश खड़े रहते हैं आप कुल्हाडी से इनका काम तमाम कर दीजिए, 
उफ़ तक नहीं करेंगे. 
पालक को जड़ से उखाड़ लीजिए, चाकू से टुकड़े टुकड़े कर दीजिए, 
देग़ची में डाल कर आग में भून डालिए, 
वह बेज़बान कोई एहतेजाज नहीं करेगी, 
वर्ना उसे तो अभी फूलना फलना था, फ़ज़ा में लहलहाना था, 
अपने गर्भ में अपने बच्चों के बीज पालने थे. 
बहुत से बीजों से, फिर धरती पर उसकी अगली नस्लों जा जनम होता 
जिनकी आप ने ह्त्या कर दी. 
बनस्पति आपसे बच भी गई तो उसे जानवर कहाँ बख़्शने वाले है. 
वह तो उनकी ख़ूराक है. उस पर क़ुदरत ने उनको पूरा पूरा हक़ दिया हुवा है. 
घोड़ा घास से यारी नहीं कर सकता. 
हम बनस्पति को बोते हैं सींचते, पालते, पोसते हैं, किस लिए ? 
कि इन पर हमारी ख़ूराक का हक़ हमें हासिल है. 
खनिजों की तरह ग़ालिबन इनकी भी दिली आरज़ू होती होगी कि 
यह भी प्राणी के काम आएँ. 
खनिजों पर बनस्पतियों का जन्म सिद्ध अधिकार है, 
साथ साथ पशु और मानव जाति का हक़ भी है. 
बनस्पतियों पर पशु जीव जंतु और मानव जाति का जन्म सिद्ध अधिकार होता है, 
इन दोनों हक़ीक़तों के क़ायल अगर आप हो चुके हों तो हम तीसरे पर आते हैं.

बनस्पतियों के बाद अब बारी है जीव धारी पशु पक्षियो की, जिन पर क़ुदरत ने अशरफ़ुल मख़लूक़ात इंसान को जन्म सिद्ध अधिकार दिया है, 
कि वह उनका दोहन और भोजन करे, मगर हाँ! 
आदमी को पहले आदमी से अशरफ़ुल मख़लूक़ात इंसान बन्ने की ज़रुरत है. 
जानवरों को तंदुरुस्त और दोस्त बना कर रखने की ज़रुरत है, 
उन्हें इतना प्यार दें कि वह आप की तरफ़ से निश्चिन्त हों और 
उनको अचेत करके ही मारें, 
उनकी चेतना में इंसानों की तरह कोई प्लानिग नहीं है, 
क्षनिक वर्तमान ही उनकी मुकम्मल ख़ुशी है. 
उनके वर्तमान का ख़ून मत करिए. 
पेड़ पौदे भाग कर जान बचने में असमर्थ होते हैं और जानवर, 
जीव जंतु समर्थ मगर किसे मालूम है कि 
मरने में किसे कष्ट ज़्यादा होता है? 
हम अपने तौर पर समझते हैं कि जानवर चूंकि प्रतिरोध ज़्यादा करते हैं 
और पेड़ खड़े खड़े ख़ुद को कटवा लेते हैं, 
इस लिए जानवर पर दया करना चाहिए मगर शायद यह हमारी भूल है. 
आदमी आदमी का क़त्ल कर दे तो जुर्म, सज़ा ए मौत तक तक हो सकती है, 
क्यूँ कि वह जानवर से दो क़दम आगे है, 
यानी फ़रियाद करने के लिए उसके पास ज़बान है और 
अपने हम ज़ाद को बचाने की अक़ली दलील. 
गहरे से सोचें तो ख़ून दरख़्त का हो, हैवान का हो और चाहे इंसान का हो सब ख़ून है, 
हमने अपनी सुविधा के अनुसार इसे पाप पुन्य का दर्जा दे रखा है.
जानवरों को इंसानी ग़िज़ा अगर न बनाया जाय तो यह स्वयं उन पर ज़ुल्म है कि 
इस तरह उनका भला नहीं हो सकता और एक दिन वह 
ख़ात्मे की कगार पर आ जाएँगे, 
नमूने के तौर पर अजायब घरों की जीनत भर रह पाएंगी, 
जैसे गायों की दशा भारत में हो रही है. 
दूध पूत के बाद एक गाय का अंत उसके ब्योसयिक अंगों पर ही निर्भर करता है. 
जिस देश में आदमीं को दो जून की रोटी न मिलती हो वहां बूढ़ी गाय 
को बिठा कर कौन खिलएगा. 
शिकागो में दूध की एक निश्चित मात्रा के बाद लाखों गाएँ हर महीने काट दी जाती हैं.

 खाद्य बकरियाँ साल में दो बच्चे देती हैं और उनके गोश्त से दुकानें अटी हुई हैं 
और अखाद्य कुतियाँ साल में छ छ बच्चे देती हैं मगर उनमें एकाध ही बच पाते हैं. 
नॉन फर्टलाइज़ अण्डों एवं ब्रायलर्स (मुर्ग) ने इंसानी ख़ूराक का मसला हल करने में काफ़ी योगदान किया है जो कि नई ईजाद है .
नारवे जैसे देशों में शाकाहार बहुत अस्वाभाविक है, उनको इंपोर्ट करना पड़ेगा, 
शायद उनको सूट भी न करे और उनको पसंद भी न आए, 
इस लिए उनकी पहली पसंद बारह सिंघा है और दूसरी पसंद भी बारह सिघा और आख़री पसंद भी बारह सिंघा.
एक दिन आएगा कि मानव समाज की मानवता अपने शिखर विन्दु को छुएगी 
जब हिष्ट-पुष्ट एवं निरोग मानव शरीर अपने अंत पर प्रकृति को अपने ऊपर लदे 
क़र्ज़ को वापस करता हुवा इस दुनिया से विदा होगा. 
जब उसका शरीर मशीन के हवाले कर दिया जाएगा, 
जिसको कि वह ऑटो मेटिक विभाजित करके 
महत्त्व पूर्ण अंग को मेडीकल साइंस के हवाले कर देगी, 
मांस को एनिमल्स, बर्डस और फिशेस फ़ूड के प्रोसेस में मिला दिया जाएगा 
तथा हड्डियों को यूरिया बना कर बनास्प्तियों का क़र्ज़ लौटाया जाएगा. 
न मरने में सात मन कारामद लकड़ी जल कर बर्बाद होगी, न एक पीपा घी, 
न बाईस गज़ नए कपड़े का कफ़न लगेगा और न कबरें बनेंगी, 
न सैकड़ों लोगों के हज़ारों वर्किंग आवर्स बर्बाद होंगे, 
न ताबूत की क़ीमत ज़ाया होगी और न मुर्दे के तन पर सजा हुवा 
उसका क़ीमती लिबास ज़मीन में गड़ेगा. 
जो कुछ ज़िंदों को मयस्सर नहीं, 
तमाम रस्मो-रिवाज यह मानवता का शिखर विदु दफ़्न कर देगा.
(शाकाहारियों से क्षमा के साथ)
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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