Wednesday 7 August 2019

रोज़े दारी


रोज़े दारी 

रोज़े चन्द्र मासी साल के अनुसार एक महीने के होते है. 
चन्द्र मास कैलेण्डर वर्ष से करीब बारह दिन छोटा होता है, 
इस लिए रोज़े कभी जनवरी में पड़ते हैं तो कभी जून में.
हिन्दू साल भी चन्द्र मासी होता है मगर परिवर्तन शील हिन्दू समाज ने इसको सुधार कर साल को 13 मीने का कर लिया है , दो मॉस को क्रमशः एक मॉस करके. 
अब आइए रोज़े दारों की दिन चर्या पर - - -
रोजों में अंतिम खान पान सुबह होने से पहले हो जाना चाहिए, 
उसके बाद पूरा दिन मुंह में कोई खाद्य हराम. 
दिन भर भूके-प्यासे रहने के बाद सूरज डूबते ही रोज़ा खुलता है. 
रोज़ा खुलना और रोज़ा टूटना दो अलग अलग मुआमले है, 
एक हलाल होता है तो दूसरा हराम. 
रोज़ा खोलने का समय इतना कम होता है कि एक ख़जूर खाकर पानी पी लो, क्यूंकि मग़रिब की नमाज़ सर पर धरी हुई रहती है, 
मगर देखा गया है कि लोग डट कर अफ़तार करतेहैं, 
उसके बाद ही नमाज़ को जाते है. 
अफ़तार हस्ब ए हैसियत रोचक खाद्य पदार्थों से भरा होता है.
अफ़तार के बाद दो घंटे का समय होता ही कि इशा (रातकी नमाज़) सर पर धरी रहती है.
इशा से पहले ही रात का खाना खा पी लो.
दो घंटे में दो ख़ुराक को मेदा पचाने के लिए वध्य होता है वरना बग़ावत कर देता है.
इशा की लंबी नमाज़ के बाद रोज़े दार कमर सीधी नहीं कर पाता कि तरावीह की 
क़ुरआन ख्वानी सुनना है वह भी खड़े रह कर. 
इस बड़ी कसरत में अक्सर मुसलमान ऊंघ कर गिर जाते हैं. 
इन लवाज़मात के बाद रोज़े दार सोता है तो तीन बजे, 
सहरी जगाने की आवाज़ मस्जिद के तेज़ लाऊड स्पीकर नाक और कान में दम कर देती हैं. इन दो तीन घंटों में कहीं कहीं सेहरी डिनर तैयार हो जाता है, मगर अक्सर लोग दूध और सूत फेनी ही पर किनाअत कर लेते हैं, 
जो बहर हाल भारी गिज़ा होती है.
मुस्लिम समाज की इस दिन चर्या के बाद आइए देखें कि रोज़े और रोज़दारों पर इसका असर क्या होता है,
!-रोज़े दार दिन ग्यारा बजे तक सोता रहता है.
2- दिन भर अनियमित दिन चर्या के करण ख़फ़ा ख़फा रहता है, 
सामने वाले को काट खाने को दौड़ता है.
3 -दिन भर बंद मुंह रहने की वजेह से रोज़े दार के मुंह से बदबू का भपका निकलने लगता है. 
क़ुरआन कहता है कि अल्लाह तअला को रोज़े दार के मुंह की बदबू पसंद है.
(क्या ज़ौक़ है अल्लाह्का)
4 - ज़्यादः तर बूढ़े रोज़े दार रमज़ान के महीने में अल्लाह को प्यारे हो जाते हैं.
5 - अल्लाह रमज़ान के महीनो के ख़र्च का हिसाब नहीं लेता, नतीजतन मुसलमान ख़ूब खाता पीता है, अपनी जमा पूंजी गवां देता है या फिर क़र्ज़दार हो जाता है.
6 -रमज़ान के महीने में दुन्या भर में लाखों मुसलमान ग़ैर फ़ितरी मौत मरते हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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