Friday 16 August 2019

इंशा अल्लाह

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 इंशा अल्लाह          
      
इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो.'' 
सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक काम  करो. 
हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, 
अगर वह राज़ी हो जाए? 
वह वाक़ई अगर अल्लाह है तो इसके लिए कभी राज़ी न होगा. 
अगर वह शैतान है तो इस की इजाज़त दे देगा. 
अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि 
इसके लिए इंशा अल्लाह कहने कि बजाए 
''इंशा शैतानुर्रजीम'' 
कहना दुरुस्त होगा. इस बात का गवाह ख़ुद अल्लाह है 
कि वह शैतान से बुरे काम कराता है. 
आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख़ को लौटा दूंगा. 
आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, 
क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यक़ीनी है, 
तो वापसी के काम में क्यूँ न होगी? 
चलो मान लेते है कि उस तारीख़ में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं, जाओ सुलूक करने वाले के पास, 
अपने आप को ख़ता वार की तरह उसको पेश कर दो. 
वह बख़्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक़ होगा. 
रघु कुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ पर वचन न जाई.
इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर 
भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ'' 
दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, 
उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. 
जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इक़रार नामें हों या फिर नोट, 
कहीं इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. 
इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. 
मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख़्ता नहीं, 
बल्कि कमज़ोर कर दिया है, 
ख़ास कर लेन देन के मुआमलों में. 
क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह 
''इंशा अल्लाह'' 
कहने की हिदायत देती हैं, इसके बग़ैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को ग़ुनहगारी बतलाती हैं. 
आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है.
उसके वादे, क़ौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या न करे. 
इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, 
नतीजतन पूरी क़ौम बदनाम हो चुकी है. 
मैंने कई मुसलमानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि 
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , 
इंशा अल्लाह '' 
तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, 
उनमें कशमकश आ गई. 
उनका ईमान यूँ पुख़्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, 
गोया कोई ग़ुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. 
इस मुहम्मदी फ़ार्मूले ने पूरी क़ौम की मुआशी हालत को बिगाड़ रख्खा है. 
सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठा कर देखता है, 
फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? 
मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबा है. 
क़ौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. 
पक्षपात की वजेह से भी मुसलमान संदेह की नज़र से देखा जाता है .
मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की (ग़ालिब)
ग़ालिब का ये मिसरा मुसलमानों पर सादिक़ है कि इस्लामी तअलीम ने उनको इंसानी तअलीम  से महरूम कर दिया है. 
मुसलमानों के लिए इससे नजात पाने का एक ही हल है 
कि वह तरके-इस्लाम करके दिलो-व-दिमाग़ से मोमिन बन जाएँ.
दीन दार मोमिन.
दीन= दयानत (सत्यता) + मोमिन = ईमान दार (इस्लामी ईमान नहीं)
***
154 - मुअज्ज़े      
मुहम्मद नें जो बातें हदीसों में फ़रमाया है, 
उन्ही को क़ुरआन में गाया है.
अल्लाह के रसूल ख़बर देते हैं कि क़यामत नजदीक आ चुकी है, 
और चाँद फट चुका है.
मूसा और ईसा की तरह ही मुहम्मद ने भी दो मुअज्ज़े (चमत्कार) दिखलाए, 
ये बात दीगर है कि जिसको किसी ने देखा न गवाह हुआ, 
सिवाय अल्लाह के या फिर जिब्रील अलैहस्सलाम के जो मुहम्मद के दाएँ बाएँ हाथ है.
 एक मुअज्ज़ा था सैर ए कायनात जिसमे उन्हों ने सातों आसमानों पर क़याम किया, अपने पूर्वज पैग़मबरों से मुलाक़ात किया, यहाँ तक कि अल्लाह से भी ग़ुफ़्तुगू की. उनकी बेगम आयशा से हदीस है कि उन्होंने अल्लाह को देखा भी.
दूसरा मुअज्ज़ा है कि मुहम्मद ने उंगली  के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए, 
जिनमें से एक टुकड़ा मशरिक बईद में गिरा और 
दूसरा टुकड़ा मगरिब बईद में जा गिरा.(पूरब और पच्छिम के छोरों पर)
इन दोनों का ज़िक्र क़ुरआन और हदीसों, दोनों में है. 
इस की इत्तेला जब ख़लीफ़ा उमर को हुई तो रसूल को आगाह किया कि 
ऐसी बड़ी बड़ी गप अगर आप छोड़ते रहे तो न आपकी रिसालत बच पाएगी 
और न मेरी ख़िलाफ़त. 
बस फिर रसूल ने कान पकड़ा, कि मुअज्ज़े अब आगे न होंगे.
उनके मौत के बाद उनके चमचों ने अपनी अपनी गवाही में 
मुहम्मद के सैकड़ों मुअज्ज़े गढ़ डाले.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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