Saturday 23 January 2021

तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म)


तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म)

तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इंसानी ज़ेहन का वह रद्देअमल (प्रतिक्रिया) है जो फ़ितरी (लौकिक) बातों को ही मानता है, ग़ैर फ़ितरी (अलौकिक) दलीलें उसके लिए लामअनी (व्यर्थ) होती हैं.
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) धर्म व मज़हब के कल्पित ख़ुदाओं और उसके नियम को कूड़ेदान में डालता है. इंसान क़ुदरती तौर पर कभी आसमान में उड़ नहीं सकता, 
अल्लाह के रसूल हज़ार एलान करते रहें, 
पवन सुत हनुमान लाख डींगें मरते रहें, 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म), इन बातों पर कभी यक़ीन नहीं कर सकता.
तसव्वुफ़ धार्मिकता से पहले ही वजूद में आ चुका था. 
इस्लाम से पहले ठोस तसव्वुफ़ इस्लाम का असली बैरी था, 
काफ़िर (मूर्ति पूजक) , मुशरिक (अल्लाह के शरीक) मुल्हिद (नास्तिक) यहाँ तक कि बहुत से यहूदी और ईसाई भी मुसलमान बन गए थे 
मगर तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की सच्चाई लोगों के दिलों से न निकल सकी. 
यहाँ तक कि ख़ुद मुहम्मद सूफ़ी उवैस करनी के मुरीद थे. 
इस तरह तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इस्लाम में गडमड होता गया. 
इस्लाम का आड़ लेते हुए हज़ारो किताबें हैं जो तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) को फ़रोग़ देती हैं. जब कि इस्लाम इसे हराम क़रार देता है. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इस्लाम का एक हिस्सा बनता गया और इस्लाम विरोधी भी इस्लाम अपनाते गए, तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के कशिश में आकर. मुसलमान कहते हैं, 
इस्लाम फैल रहा है, 
ठीक कहते हैं मगर नहीं जानते कि इस्लाम की आड़ में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) का विस्तार हो रहा है. 
मैं भी कभी कभी तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की महफ़िल में झूमने लग जाता हूँ. 
सूफ़ियों के क़ौल (क़ववाली) की महफ़िल में सच्चाई का नशा जो होता है. 
हिन्दू धर्म में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) का कोई स्थान नहीं बल्कि इसकी कल्पना भी नहीं. इस्लाम के आने के बाद ही इसमें सूफ़ी नुमा संत पैदा हुए. 
हिन्दुओं में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के स्थान पर 
"भक्ति" का चलन ज़्यादा देखने को मिलता है 
जो मानव मूल्यों को और भी संकुचित और संकीर्ण करता है.
यह मसाइल ए तसववुफ़ यह तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार होता. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के मसाइल (समस्याएँ) ही अलग होते हैं, 
कि वहां सदाक़त (सत्य) के सिवा कोई मसअला ही नहीं. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की पैरवी में ही लोग मुझे कभी कट्टर मुसलमान 
और कभी पक्का काफ़िर समझने लगते हैं.
हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आख़िर,
मुस्लिम ये समझते हैं, गुमराह है काफ़िर,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में,
ग़फ़लत में हैं यह दोनों, समझाएगा 'मुनकिर'.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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