Wednesday 6 January 2021

मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया


मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया 

आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर 
मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है.
जो क़बीलाई समाज का मफ़रूज़ा ख़दशा हुवा करता था. 
अफ़गानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, 
ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, 
मिस्र, लीबिया, यमन और दीगर अरब रियासतों पर 
इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं, 
तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के ग़ुलामी में जा चुके है, 
लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, 
दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, 
११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, 
अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, 
सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, 
अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
१८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, 
हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद 
इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, 
और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, 
इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, 
बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फ़र्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, 
जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, 
कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक़ ही नहीं होते. 
लेदे के आवां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ़ अपने आप में पस मानदा है, 
वहीँ दूसरी क़ौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख़्वार है. 
क्या इससे बढ़ कर क़ौम पर कोई क़यामत आना बाक़ी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाक़िस क़ुरआन की बरकत है. 
आज हस्सास तबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि 
बुजुर्गों की नाक़बत अनदेशी ने अपने जुग़राफ़ियाई वजूद को क़ुर्बान करके 
अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
ईरान में बज़ोर शमशीर इस्लामी वबा आई कमज़ोरों ने इसे निगल लिया 
मगर गग\ग़यूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, 
घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे 
जिहें पारसी कहा जाता है, 
दुन्या में सुर्ख़रू है.
सिर्फ़ मुट्ठी भर पारसी के सामने तमाम ईरान पानी भरे.
मुसलामानों के सिवा हर क़ौम मूजिदे जदीदयात है 
जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. 
इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी 
कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, 
हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो 
इसकी बद नसीबी ही होगी कि 
एक दिन वह दुन्या के लिए माज़ी की क़ौम बन जाएगा.
*****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment