Sunday 31 January 2021

>मुज्रिमाने-दीन

>मुज्रिमाने-दीन 

मुहम्मद पुर अमन तो किसी को रहने ही नहीं देना चाहते थे, 
चाहे वह मुसलमान हो चुके सीधे, टेढ़े लोग हों, चाहे मासूम और ज़हीन काफ़िर.
दुन्या के तमाम मुसलामानों के सामने यह फ़रेबी क़ुरआन के रसूली फ़रमान मौजूद हैं मगर ज़बाने ग़ैर में, जोकि वास्ते तिलावत है.
इस्लाम के मुज्रिमाने-दीन डेढ़ हज़ार साल से इस क़दर झूट का प्रचार कर रहे हैं कि झूट सच ही नहीं बल्कि पवित्र भी हो चुका है,
मगर यह पवित्रता बहर सूरत अंगार पर बिछी हुई राख की परत की तरह है.
अगर मुसलामानों ने आँखें न खोलीं तो वह इसी अंगार में एक रोज़ भस्म हो जाएँगे, उनको अल्लाह की दोज़ख भी नसीब न होगी.
क़ुरआनी आयातों में मुहम्मदी अल्लाह नव मुस्लिम बने लोगों को जेहाद के लिए वर्गलाता है, इनके लिए कोई हद, कोई मंजिल नहीं, बस लड़ते जाओ,
मरो, मारो वास्ते सवाब. 
सवाब ?
एक पुर फ़रेब तसव्वुर, एक कल्पना,  मफ़रूज़ा जन्नत, ख़यालों में बसी हूरें और लामतनाही ऐश की ज़िन्दगी जहाँ शराब, क़बाबऔर शबाब मुफ़्त, 
बीमारी आज़ारी का नमो निशान नहीं.
कौन बेवक़ूफ़ इन बातों का यक़ीन करके इस दुन्या की अज़ाबी ज़िन्दगी से नजात न चाहेगा? हर बेवक़ूफ़ इस ख़्वाब में मुब्तिला है.
मुहम्मद कहते हैं कि पहला हल तो यहीं दुन्या में धरा हुवा है. 
जंग जीते तो ज़न, ज़र, ज़मीन तुम्हारे क़दमों में, हारे, तो शहीद हुए,
 इस से वहाँ लाख गुना रक्खा है.
अजीब बात है कि ख़ुद मुहम्मद ठाठ बाट की शाही ज़िन्दगी जीना पसंद नहीं करते थे, न महेल, न रानियाँ, पट रानियाँ, न सामाने ऐश.
मरने के बाद विरासत में उनके खाते में बाँटने लायक़ कुछ ख़ास न था.
वह ऐसे भी नहीं थे कि अवामी फ़लाह की अहमियत की समझ रखते हों,
कोई शाह राह बनवाई हो,
कुएँ खुदवाए हों,
मुसाफ़िर ख़ाने तामीर कराए हों,
तालीमी इदारे क़ायम किए हो.
यह काम अगर उनकी तहरीक होती तो आज मुसलामानों की सूरत ही कुछ और होती.
मुहम्मद काफ़िरों, मुशरिकों, यहूदियों, ईसाइयों, आतिश परस्तों और मुल्हिदों के दुश्मन थे, तो मुसलमानों के भी दोस्त न थे.
मामूली इख़्तेलाफ़ पर एक लम्हा में वह अपने साथी मुसलमान को मस्जिद के अन्दर इशारों इशारों में काफ़िर कह देते.
उनके अल्लाह की राह में फ़िराख़ दिली से ख़र्च न करने वाले को जहन्नुमी क़रार दे देते.
उनकी इस ख़सलात का असर पूरी क़ौम पर रोज़े अव्वल से लेकर आज तक है.
उनके मरते ही आपस में मुसलमान ऐसे लड़ मरे की काफ़िरों को बदला लेने की ज़रुरत ही न पड़ी.
गोकि जेहाद इस्लाम का कोई रुक्न नहीं मगर जेहाद क़ुरान का फ़रमान- ए-अज़ीम है जो कि मुसलामानों के घुट्टी में बसा हुवा है. 
क़ुरान मुहम्मद की वाणी है जिसमे उन्हों ने उम्मियत की हर अदा से, 
चाल घात के उन पहलुओं को छुआ है जो इंसान को मुतास्सिर कर सकें.
अपनी बातों से मुहम्मद ने ईसा, मूसा बनने की कोशिश की है, 
बल्कि उनसे भी आगे बढ़ जाने की.
इसके लिए उन्हों ने किसी के साथ समझौता नहीं किया, चाहे सदाक़त हो, चाहे शराफ़त, चाहे उनके चचा और दादा हों, यहाँ तक की चाहे उनका ज़मीर हो.
अपनी तालीमी ख़ामियों को जानते हुए, अपने खोखले कलाम को मानते हुए, 
वह अड़े रहे कि ख़ुद को अल्लाह का रसूल तस्लीम कराना है.
मुहम्मद का अनोखा फ़ार्मूला था लूट मार के माल को ''माले गनीमत'' क़रार देना. यानी इज्तेमाई डकैती को ज़रीया मुआश बनाना. 
इससे बेकारों को रोज़ी मिल गई थी. बाक़ी  दुन्या मुसलमान ग़ालिब हो गए थे. आज बाक़ी दुन्या मिल कर मुसलामानों की घेरा बंदी कर रही है,
तो कोई हैरत की बात नहीं.
मुसलमानों को चाहिए कि वह अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखें और तर्क इस्लाम करके मज़हबे इंसानियत अपनाएं जो इंसान का असली रंग रूप है. 
सारे धर्म नक़ली रंग व रोग़न में रंगे हुए हैं, सिर्फ और सिर्फ़ इंसानियत ही इंसान का असली धर्म है जो उसके अन्दर ख़ुद से फूटता रहता है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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