Wednesday 12 September 2018

Soorah Anquboot 29 Q 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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मुहम्मद रसूल बक़लम ख़ुद 
 सूरह अनकबूत में इस्लाम के शुरूआती दौर के नव मुस्लिमों की ज़ेहनी कशमकश की तस्वीरें साफ़ साफ़ नज़र आती हैं. लोग ख़ुद साख़्ता रसूल की बातों में आ तो जाते हैं मगर बा असर काफ़िरों का ग़लबा भी इनके ज़ेहन पर सवार रहता है. वह उनसे मिलते जुलते हैं, इनकी जायज़ बातों का एतराफ़ भी करते हैं जो ख़ुद साख़्ता रसूल को पसंद नहीं, मुख़बिरों और चुग़ल खो़रों से इन बातों की ख़बर बज़रीआ वह्यि ख़ुद साख़्ता रसूल को हो जाती है और ख़ुद साख़्ता रसूल कहते हैं, 
"अल्लाह ने इन्हें सारी ख़बर दे दी है " 
वह फिर से लोगों को पटरी पर लाने के लिए क़यामत से डराने लगते हैं, 
इस तरह क़ुरआन मुकम्मल होता रहता है. 
मुहम्मद के फेरे में आए हुए लोगों को ज़हीन अफ़राद समझते हैं - - -
"ये शख़्स  मुहम्मद, बुज़ुर्गों से सुने सुनाए क़िस्से को क़ुरआनी आयतें गढ़ कर बका करता है. इसकी गढ़ी हुई क़यामत से खौ़फ़ खाने की कोई ज़रुरत नहीं. चलो तुमको अंजाम में मिलने वाले इसके गढ़े हुए अज़ाबों की ज़िम्मेदारी मैं अपने सर लेने का वादा करता हूँ, अगर तुम इसके जाल से निकलो"
माज़ी के इस पसे-मंज़र में डूब कर मैं पाता हूँ कि दौरे-हाज़िर के पीरो मुर्शिदों, स्वामियों और स्वयंभू भगवानों की दूकानों को, जो बहुत क़रीब नज़र आती हैं और रसूल बहुत पास मिलते हैं. 
वह सादा लौह, अय्यार मुसाहिबों और लाख़ैरों की भीड़, मुरीदों के ये चेले, ऐसे ही लोग मुहम्मद के जाल में आते, जिनको समझा बुझा कर राहे-रास्त पर लाया जा सकता था.
मैं ख़ुद साख़्ता रसूल की हुलिया का तसव्वुर करता हूँ . . . 
नीम दीवाना, नीम होशियार, मगर गज़ब का ढीठ. 
झूट को सच साबित करने का अहेद बरदार, 
सौ सौ झूट बोल कर आख़िर कार 
"हज़रात मुहम्मद रसूल अल्लाह सललललाह अलैहे वसल्लम
बन ही गया. वह अल्लाह जिसे ख़ुद इसने गढ़ा, 
उसे मनवा कर, पसे पर्दा ख़ुद अल्लाह बन बैठा. 
झूट ने माना कि बहुत लम्बी उम्र पाई मगर अब और नहीं.  
मुहम्मद के गिर्द अधकचरे ज़ेहन के लोग हुवा करते जिन्हें सहाबाए-किराम कहा जाता है, 
जो एक गिरोह बनाने में कामयाब हो गए. 
गिरोह में बे रोज़गारों की तादाद ज़्यादः थी. कुछ समाज़ी तौर पर मजलूम हुवा करते थे, 
कुछ मसलेहत पसंद और कुछ बेयारो मददगार. 
कुछ लोग तरफ़रीहन भी महफ़िल में शरीक हो जाते. 
कभी कभी कोई संजीदा भी जायज़ा लेने की ग़रज़ से आकर खड़ा हो जाता और अपना ज़ेहनी ज़ायका बिगाड़ कर आगे बढ़ जाता 
और लोगों को समझाता . . . 
इसकी हैसियत देखो, इसकी तअलीम देखो, इसका जहिलाना कलाम देखो, 
बात कहने की भी तमीज़ नहीं, 
जुमले में अलफ़ाज़ और क़वायद की कोताही देखो. 
इसकी चर्चा करके नाहक़ ही इसको तुम लोग मुक़ाम दे राहे हो, 
क्या ऐसे ही सिड़ी सौदाई को अल्लाह ने अपना पैग़ामबर चुना है?
   बहरहाल इस वक़्त तक मुहम्मद ने तनाज़ा, मशगला 
और चर्चा के बदौलत 
मुआशरे में एक पहचान बना लिया था. 
एक बार मुहम्मद मक्का के पास एक मुक़ाम तायाफ़  के हाकिम के पास 
अपनी रिसालत की पुड़िया लेकर गए. 
उसको मुत्तला किया कि 
"अल्लाह ने मुझे अपना रसूल मुक़रार किया है." 
उसने इनको सर से पाँव तक देखा और थोड़ी गुफ़्तगू की और जो कुछ पाया उस पैराए में इनसे पूछा 
"ये तो बताओ कि मक्का में अल्लाह को कोई ढंग का आदमी नहीं मिला 
कि एक अहमक़ को अपना रसूल बनाया? " 
उसने धक्के देकर इन्हें बाहर निकाला और लोगों को माजरा बतलाया. 
लोगों ने लात घूसों से इनकी तवाज़ो किया, 
बच्चों ने पागल मुजरिम की तरह  इनको पथराव करते हुए बस्ती से बाहर किया. 
क़ुरआनी आयतें लाने वाले जिब्रील अलैहस्सलाम दुम दबा कर भागे, 
और अल्लाह आसमान पर बैठा ज़मीन पर अपने रसूल का तमाशा देख़ता  रहा.
मगर साहब ! 
मुहम्मद अपनी मिटटी के ही बने हुए थे, न मायूस हुए न हार मानी. 
जेहाद की बरकत 'माले ग़नीमत' का फ़ार्मूला काम आया. 
फ़तह मक्का के बाद तो तायाफ़ के हुक्मरान जैसे उनके क़दमों में पड़े थे.

मुलाहिज़ा हो मुहम्मद की अल्लम ग़ल्लम  - - -  

"अलिफ़-लाम-मीम"  (अल्लम)
सूरह अनकबूत -29 आयत(1)

ये लफ़्ज़ मुह्मिल है जिसके कोई मानी नहीं होते. ऐसे हरफ़ों को क़ुरआनी इस्तेलाह में हुरूफ़-मुक़त्तेआत कहते है. इसका मतलब अल्लाह ही जानता है. ऐसे लफ़्ज़ मुह्मिल को क़ुरआन की कई सूरह में मुहम्मद पहले लाते हैं. 
क़ुरआन की आयातों को सुनकर शायद किसी बेज़ार ने कहा होगा, 
"क्या अल्लम-ग़ल्लम बकते हो?" 
तब से ही यह अल्लम-ग़ल्लम अरबी, फ़ारसी और उर्दू में ये मुहविरा क़ायम हुआ.

"क्या इन लोगों ने ये ख़याल कर रक्खा है कि वह इतना कहने पर छूट जाएँगे कि हम ईमान ले आए और उनको आज़माया न जायगा और हम तो उन लोगों को भी आज़मा चुके हैं जो इसके पहले हो गुज़रे हैं, सो अल्लाह इनको जान कर रहेगा जो सच्चे थे और झूटों को भी जान कर रहेगा."
सूरह अनकबूत -29 आयत (2-3)

हर अमल का गवाह अल्लाह कहता है कि वह ईमान लाने वालों को जान कर रहेगा? 
मुहम्मद परदे के पीछे ख़ुद अल्लाह बने हुए हैं जो ऐसी तक़रार में अल्लाह को घसीटे हैं. 
वरना आलिमुल ग़ैब अल्लाह को ऐसी लचर बात कहने की क्या ज़रुरत है? 
अल्लाह को क्या मजबूरी है कि वह तो दिलों की बात जानता है. 
इस्लाम क़ुबूल करने वाले नव मुस्लिम ख़ुद आज़माइश के निशाने पर हैं. 
मुहम्मद इंसानी ज़ेहनों पर मुकम्मल अख़्तियार चाहते हैं कि उनको तस्लीम इस तरह  किया जाए कि इनके आगे माँ, बहेन, भाई, बाप कोई कुछ नहीं. 
इनसे साहब सलाम भी इनको गवारा नहीं.

"हम ने इंसान को अपने माँ बाप के साथ नेक सुलूक करने का हुक्म दिया है और अगर वह तुझ पर इस बात का ज़ोर डालें कि तू ऐसी चीज़ को मेरा शरीक ठहरा जिसकी कोई दलील तेरे पास नहीं है तो उनका कहना न मानना. तुझको मेरे ही पास लौट कर आना है. सो मैं तुमको तुम्हारे सब काम बतला दूंगा."
सूरह अनकबूत -२९ आयत(८)

मुहम्मदी अल्लाह की ये गुमराही के एहकाम औलादों के लिए है तो दूसरी तरफ़ माँ बाप को धौंस देता है कि अगर उनकी औलादें इस्लाम के ख़िलाफ़ गईं तो जहन्नम की सज़ा उनके लिए ( माँ बाप के लिए ) रक्खी हुई है. 
ये है मुसलमानों की चौ तरफ़ा घेरा बंदी.

"अल्लाह ईमान वालों को जान कर ही रहेगा और मुनाफ़िक़ों भी."
सूरह अनकबूत -29 आयत(11)

मुहम्मद अपने अल्लाह को भी अपनी ही तरह उम्मी गढ़े हुए हैं, 
कितनी मुतज़ाद बात है क़ुदरत के ख़िलाफ़ कि वह सच्चाई को ढूंढ रही है.

"कुफ़्फ़ार मुसलमानों से कहते हैं कि हमारी राह पर चलो, और तुम्हारे गुनाह हमारे जिम्मे, हालाँकि ये लोग इनके गुनाहों को ज़रा भी नहीं ले सकते, ये बिकुल झूट बक रहे हैं और ये लोग अपना गुनाह अपने ऊपर लादे हुए होंगे."
सूरह अनकबूत -29 आयत(12)  

ये आयत उस वाक़िए का रद्दे अमल है कि कोई शख़्स  मुसलमान हुवा था, उसे दूसरे ने वापस पुराने दीन पर लाने में कामयाब हुवा, जब उसने इस बात कि तहरीरी शक्ल में लिख कर दिया कि अगर गुनाह हुवा तो उसके सर. मज़े की बात ये कि ज़मानत लेने वाले ने उससे कुछ रक़म भी ऐंठी. 
ऐसे गाऊदी हुवा करते थे सहाबए किराम .

गुनाह और सवाब ?
आम मुसलमान उम्र भर इन दो भूतिए एहसास में डूबे रहते है, 
जब कि इंसान पर भूत इस बात का होना चाहिए कि उसका हिस और ज़मीर उस पर सवार रहे .
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

2 comments:

  1. श्रीमान जी ,,यह आयत देखें " रोम मग्लूब हो गये नजदीक की जमीन पर और वह मग्लूब होने के बाद अनकरीब गालिब आ जाएं गें चंद साल में ही ,अल्लाह के हुक्म से और उस दिन मुसलमान खुश हो जाएंगें " सूरह ,,रोम आयत ( 1.2.3.4.)पारह( 21 ) सवाल यह पैदा होता है कि रोमन ईसाई थे और हजरत यीशू मसीह को खुदा का बेटा कहकर शिर्क किया करते थे ,,जब ईरान ने मिस्र की सरजमीन पर रोमनों को शिकश्त से दोचार किया तो इस आयत से मुसलमानों को तसल्ली दी जा रही है कि जल्द ही रोम ,इरान पर विजय हासिल कर लेंगें तो मुसलमान खुश हो जाएं गें ,अल्लाह को रोम ,और ईरान की जंग से क्या मतलब ?ईसाइ तो मुसलमान के दुश्मन थे उनकी जीत से मुसलमान क्यों खुश होंगे ? क्या यह सच है कि रसूल और उनके सहाबी रोम और ईसाइयों के एजेन्ट थे ? वरनह रोमनों की चमचा गीरी का क्या मतलब है? इस मौजू पर आप की तहरीर का मुन्तजिर हूं।

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  2. शुक्रया जनाब ! मेरी तहरीक को समझें. मज़हब और धर्म की तहक़ीक़ में मैं वक़्त नहीं बरबाद करता. मुल्हिद हूँ इनकी बातों में सच और झूट है, इससे सरोकार नहीं. इनको इस ज़मीन से उखाड़ना फेकना, मेरा मेरा मक़सद ए हयात है.



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