Friday 7 September 2018

SoorahQasas 28 -Q 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह क़सस -28- سورتہ القصص



(क़िस्त-2) 


सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख़्स से लिखवाई है . 
इसे पढ़ने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. 
हराम ज़ादे आलिमों को इस बात का ख़ूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोल्लने की क़सम जो खा राखी है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.   


लीजिए महसूस कीजिए ग़ैर अल्लाह के क़ुरआन को, 
मगर हाँ! क़ि इस मुजरिम ने मुहम्मद की उम्मियत की इस्लाह की है, 
वह कलाम में मुहम्मद का हम सर ही है - - -   

मूसा सफ़र में था और रात का वक़्त कि इसने कोहे तूर पर एक रौशनी देखी, वह इसकी तरफ़ खिंच गया, अपने घर वालों से ये कहता हुवा कि तुम यहीं रुको मैं आग लेकर आता हूँ. वहीँ पर अल्लाह इसको अपना पैग़म्बर चुन लेता है.
सूरह क़सस -28 (आयत-25-30)

इस मौक़े पर मुहाविरा है कि "मूसा गए आग लेने और मिल गई पैग़म्बरी"
अल्लाह फ़िरऔन की सरकूबी के लिए मूसा को दो मुअज्ज़े देता है, 
पहला उसकी लाठी का सांप बन जाना और 
दूसरा यदे-बैज़ा (हाथ की गदेली पर अंडे की शक्ल का सफ़ैद निशान) 
और मूसा के इसरार पर उसके भाई हारुन को उसके साथ का देना क्यूंकि मूसा की ज़ुबान में लुक्नत (हक़लाहट) थी.
ये दोनों फ़िरऔन के दरबार में पहुँच कर उसको हक़ की दावत देते हैं 
(यानी इस्लाम की) और अपने मुअज्ज़े दिखलाते हैं जिस से वह मुतासिर नहीं होता और कहता है यह तो निरा जादू के खेल है. 
फिर भी नए अल्लाह में वह कुछ दम पाता है. 
फ़िरऔन अपने वजीर हामान को हुक्म देता है कि एक निहायत पुख़्ता और बुलंद इमारत की तामीर की जाए कि इस पर चढ़ कर मूसा के इस नए (इस्लामी) अल्लाह की झलक देखी जाए.
सूरह क़सस -28 (आयत-25-30)

अल्लाह इसके आगे अपनी अज़मत, ताक़त और हिकमत की बख़ान  में किसी अहमक़ की तरह लग जाता है और अपने रसूल मुहम्मद की शहादत ओ गवाही में पड़ जाता है और मूसा के किससे को भूल जता है. आगे की आयतें क़ुरआनी खिचड़ी वास्ते इबादत हैं.
सूरह क़सस -28 (आयत-39-88)

याद रहे क़ुरआन  किसी अल्लाह का कलाम नहीं है, 
मुहम्मद की वज्दानी कैफ़ियत है, जेहालत है और ख़ुराफ़ाती बकवास है.
मैंने महसूस किया है कि क़ुरआन की दो सूरतें किसी (हदीद और क़सस) दूसरे ने लिखी है जो तअलीम याफ़्ता और संजीदा रहा होगा, 
मुहम्मद ने इसको क़ुरआन में शामिल कर लिया. 
इस सिलसिले में सूरह क़सस पहली है, दूसरी आगे आएगी. 
इसे कारी आसानी से महसूस कर सकते हैं. 
क़िस्सए मूसा और क़िस्सए सुलेमान में आसानी से ये फ़र्क़ महसूस किया जा सकता है. 
इस सूरह में न क़वायद की लग्ज़िशें हैं न ख़याल की बे राह रवी.
देखें इस सूरह क़सस की कुछ आयतें जो ख़ुद साबित करती है कि यह उम्मी मुहम्मद की नहीं, बल्कि किसी ख़्वान्दा की हैं. - - -

"और हम रसूल न भी भेजते अगर ये बात न होती कि उन पर उनके किरदार के सबब कोई मुसीबत नाज़िल हुई होती, तो ये कहने लगते ऐ हमारे परवर दिगार कि आपने हमारे पास कोई पैग़म्बर क्यूं नहीं भेजा ताकि हम आप के एहकाम की पैरवी करते और ईमान लाने वालों में होते."
सूरह क़सस -28  (आयत-47)

''सो जब हमारी तरफ़ से उन लोगों के पास अमर ऐ हक़ पहुँचा तो कहने लगे कि उनको ऐसी किताब क्यूँ न मिली जैसे मूसा को मिली थी. 
क्या जो किताब मूसा को मिली थी तो क्या उस वक़्त ये उनके मुंकिर नहीं हुए? ये लोग तो यूं ही कहते हैं दोनों जादू हैं. जो एक दूसरे के मुवाफ़िक़ हैं और यूँ भी कहते हैं कि हम दोनों में से किसी को नहीं मानते तो आप कह दीजिए कि तुम कोई और किताब अल्लाह के पास से ले आओ.
जो हिदायत करने वालों में इन से बेहतर हो, 
मैं उसी की पैरवी करने लगूँगा, अगर तुम सच्चे हुए"
सूरह क़सस -28 (आयत-48-49)



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. इन हराम खोर ओलिमाओं ने कमजोरों का जीना हराम कर रखा है। यह कुत्ते अपने पिछवाडे पर जिहालत और बेइमानी का मेडल सजाकर मुहसिन ए इनसानियत बने फिर रहे है ? इन बेईमानों से नजात का एक ही हल है कि ड्रोन मार मार कर इनका नाम व निशान मिटा दिया जाए,,

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