Monday 24 January 2011

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ (3)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ (3)



(तीसरी क़िस्त )
"आप तो सिर्फ डराने वाले हैं, हमने ही आपको हक़ देकर खुश ख़बरी सुनाने वाला और डराने वाला भेजा है. और कोई उम्मत ऐसी नहीं हुई जिसमे कोई डर सुनाने वाला नहो."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (२४)

या अल्लाह अब डराना बंद कर कि हम सिने बलूगत को पहुँच चुके हैं. डराने वाला, डराने वाला, पूरा कुरआन डराने वाला से भरा हुवा है. पढ़ पढ़ कर होंट घिस गए है. क्या जाहिलों की टोली में कोई न था कि उसको बतलाता कि डराने वाला बहरूपिया होता है. 'आगाह करना' होता है जो तुम कहना चाहते हो. मुजरिम अल्लाह के रसूल ने, इंसानों की एक बड़ी तादाद को डरपोक बना दिया है, या तो फिर समाज का गुन्डा.


"वह बाग़ात में हमेशा रहने के लिए, जिसमे यह दाखिल होंगे, इनको सोने का कंगन और मोती पहनाए जाएँगे और पोशाक वहाँ इनकी रेशम की होगी और कहेगे कि अल्लाह का लाख लाख शुक्र है जिसने हम से ये ग़म दूर किए. बेशक हमारा परवर दिगार बड़ा बख्शने वाला है.''

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (३३-३४)

सोने के कँगन होंगे, हीरों के जडाऊ हार, मोतियों के झुमके और चांदी की पायल और रेशमी शलवार कुरता जिसको पहन कर जन्नती छमा छम नाचेंगे, क्यूँ कि वहाँ औरतें तो होंगी नहीं. जिसमें मकसदे हयात न हो वह ज़िन्दगी कैसी? जन्नत नहीं वह ही असली दोज़ख है.


"और जो लोग काफ़िर है उनके लिए दोज़ख की आग है. न तो उनको क़ज़ा आएगी कि मर ही जाएँ और न ही दोज़ख का अज़ाब उन पर कम होगा. हम हर काफ़िर को ऐसी सज़ा देते हैं और वह लोग चिल्लाएँगे कि ए मेरे परवर दिगार! हमको निकाल लीजिए, हम अच्छे काम करेंगे, खिलाफ उन कामों के जो किया करते थे. क्या हमने तुम को इतनी उम्र नहीं दी थी कि जिसको समझना होता समझ सकता और तुम्हारे पास डराने वाला नहीं पहुँचा था? तो तुम मज़े चक्खो, ऐसे जालिमों का मदद गार कोई न होगा."

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (३६-३७)

ऐसी आयतें बार बार कुरआन में आई हैं, आप बार बार गौर करिए कि मुहम्मदी अल्लाह कितना बड़ा ज़ालिम है कि उसकी इंसानी दुश्मन फरमानों को न मानने वालों का हश्र क्या होगा? माँगे मौत भी न मिलेगी और काफ़िर अन्त हीन काल तक जलता और तड़पता रहेगा. मुसलमान याद रखें कि अल्लाह के अच्छे कामों का मतलब है उसकी गुलामी बेरूह नमाज़ी इबादत है और उसे पढ़ते रहने से कोई फिकरे इर्तेक़ा या फिकरे- नव दिमाग में दाखिल ही नहीं हो सकती और ज़कात की भरपाई से कौम भिखारी की भिखारी बनाए रहेगी और हज से अहले-मक्का की परवरिश होती रहेगी. मुसलामानों कुछ तो सोचो अगर मुझको ग़लत समझते हो तो कुदरत ने तुम्हें दिलो दिमाग़ दिया है. इस्लाम मुहम्मद की मकरूह सियासत के सिवा कुछ भी नहीं है.

"आप कहिए कि तुम अपने क़रार दाद शरीकों के नाम तो बतलाओ जिन को तुम अल्लाह के सिवा पूजा करते हो? या हमने उनको कोई किताब भी दी है? कि ये उसकी किसी दलील पर क़ायम हों. बल्कि ये ज़ालिम एक दूसरे निरी धोका का वादा कर आए हैं.''

"सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (४०)

और आप भी तो लोगों के साथ निरी धोका हर रहे हैं, अल्लाह के शरीक नहीं, दर पर्दा अल्लाह बन गए हैं, इस गढ़ी हुई कुरआन को अल्लाह की किताब बतला कर कुदरत को पामाल किए हुए हैं. इसकी हर दलील कठ मुललई की कबित है.

"और इन कुफ्फर(कुरैश) ने बड़े जोर की क़सम खाई थी कि इनके पास कोई डराने वाला आवे तो हम हर उम्मत से से ज़्यादः हिदायत क़ुबूल करने वाले होंगे, फिर इनके पास जब एक पैगम्बर आ पहुंचे तो बस इनकी नफ़रत को ही तरक्की हुई - - - सो क्या ये इसी दस्तूर के मुन्तज़िर हैं जो अगले काफ़िरों के साथ होता रहा है, सो आप कभी अल्लाह के दस्तूर को बदलता हुवा न पाएँगे. और आप अल्लाह के दस्तूर को मुन्तकिल होता हुवा न पाएँगे."

"सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (42-43)

सूरह अहज़ाब में अल्लाह ने वह आयतें मौकूफ (स्थगित करना या मुल्तवी करना) कर दिया था और मुहम्मद ने कहा था कि उसको अख्तिअर है कि वह जो चाहे करे. पहली आयत में अल्लाह का दस्तूर ये था कि बहू या मुँह बोली बहू के साथ निकाह हराम है, फिर वह आयतें मौकूफ हो गईं. नई आयतों में अल्लह ने मुँह बोली बहू के साथ निकाह को इस लिए जायज़ क़रार दिया ताकि मुसलामानों पर इसकी तंगी ना रहे. मुहम्मदी अल्लाह का मुँह है या जिस्म का दूसरा खंदक ? वह कहता है कि "और आप अल्लाह के दस्तूर को मुन्ताकिल होता हुवा न पाएँगे." अल्लाह ने अपना दस्तूर फर्जी फ़रिश्ते जिब्रील के मुँह में डाला, जिब्रील मुहम्मद के मुँह में उगला और मुहम्मद इस दस्तूर को मुसलामानों के कानों में टपकते हैं. मुहम्मद को अपना इल्म ज़ाहिर करना था कि वह लफ्ज़ 'मुन्तकिल' को खूब जानते हैं.

मुसलमानों! मोमिन को समझो, परखो, तोलो,खंगालो, फटको और पछोरो.
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
चमन में जाके होता है कोई तब दीदा वर पैदा.
मेरी इस जिसारत की क़द्र करो. इस्लामी दुन्या कानों में रूई ठूँसे बैठी है, हराम के जने कुत्ते ओलिमा तुम्हें जिंदा दरगोर किए हुवे हैं,
तुम में सच बोलने और सच सुनने की सलाहियत ख़त्म हो गई है.
तुमको इन गुन्डे आलिमो ने नामर्द बना दिया है.
जिसारत करके मेरी हौसला अफ़ज़ाई करो जो तुम्हारा शुभ चिन्तक और खैर ख्वाह है.
मैं मोमिन हूँ और मेरा मसलक ईमान दारी है,
इस्लाम अपनी शर्तों को तस्लीम कराता है जिसमें ईमान रुसवा होता है,

मेरे ब्लॉग पर अपनी राय भेजो भले ही गुमनाम हो. दो अदद ++ ही सही. अगर मेरी बातों में कुछ सदाक़त पाते हो तो.

देखो बहाउल्लाह ईरानी को क्या कहता है - - -
कि जिसे ईरानी मुस्लिम जल्लादों ने सच बोलने पर फाँसी पर लटका दिया.

बहाउल्लाह कहते हैं - - -

"ईमान दारी यक़ीनी तौर पर सारे खल्क़ के लिए अम्न और क़याम का दरवाज़ा है और खुदाए मेहबान के सामने अक़ीदत का निशान है, जो इसे पा लेता है, धन दौलत के अम्बार पा लेता है. ईमान दारी ही इंसान के लिए तहफ्फुज़ और इसके लिए चैन का सब से बड़ा बाब है. हर काम की पुख्तगी ईमान दारी पर मुनहसर होती है. इज्ज़त शोहरत और खुश हाली इसकी रौशनी से चमकते है,"

"बहाई मसलक"

इसे कहते हैं ईशवानी या कलाम ए पाक .

इसी को कबीर ने यूं कहा है - - -


साँच बराबर तप नहीं, झूट बराबर पाप.

जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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