Friday 8 June 2018

सूरह बनी इस्राईल -१७ (क़िस्त 3)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह बनी इस्राईल -१७
(क़िस्त 3) 



नाम से लगता है कि इस सूरह में बनी इस्राईल यानी याक़ूब की बारह औलादों की दास्तान होंगी मगर ऐसा कुछ भी नहीं, 
वही लोगों से जोड़ तोड़, अल्लाह की क़यामती धमकियाँ ही हैं. 
गीता की तरह अगर हम क़ुरआन सार निकलना चाहें तो वो ऐसे होगा - - -

''अवाम को क़यामत आने के यक़ीन में लाकर, दोज़ख का खौफ़ और जन्नत की लालच पैदा करना, फिर उसके बाद मन मानी तौर पर उनको भेड़ों को हाँकना''



क़यामत के उन्वान को लेकर मुहम्मद जितना बोले हैं उतना दुन्या में शायद कोई किसी उन्वान पर बोला हो. 

इस्लाम को अपना लेने के बाद मुसलमानों मे एक वाहियात इंफ़्रादियत आ गई है कि मुहम्मद की इस 'बड़ बड़' को ज़ुबानी रट लेने की, 
जिसे हफ़िज़ा कहा जाता है. 
लाखों ज़िंदगियाँ इस ग़ैर तामीरी काम में लग कर अपनी फ़ितरी ज़िन्दगी से ना आशना और महरूम रह जाती हैं और दुन्या के लिए कोई रचनात्मक काम नहीं कर पातीं. 
अरब इस हाफ़िज़े के बेसूद काम को लगभग भूल चुके हैं और तमाम हिंदो-पाक के मुसलमानों में रायज, यह रवायती ख़ुराफ़ात अभी बाक़ी है. 
वह मुहम्मद को सिर्फ़ इतना मानते हैं कि उन्हों ने कुफ्र और शिर्क को ख़त्म करके वहदानियत (एक ईश्वर वाद) का पैगाम दिया. 
मुहम्मद वहाँ आक़ाए दो जहाँ नहीं हैं. 
यहाँ के मुसलमान उनको गुमराह और वहाबी कहते हैं.
तुर्की में इन्केलाब आया, कमाल पाशा ने तमाम कट्टर पंथियों के मुँह में लगाम और नाक में नकेल डाल दीं, जिन्हों ने दीन के हक़ में अपनी जानें क़ुरबान करना चाहा उनको लुक़्मए अज़ल हो जाने दिया, नतीजतन आज योरोप में अकेला मुस्लिम मुल्क है जो योरोप के शाने बशाने चल रहा है. 
कमाल पाशा ने बड़ा काम ये किया की इस्लाम को अरबी जुबान से निकाल कर टर्किश में कर दिया जिसके बेहतरीन नतायज निकले, 
कसौटी पर चढ़ गया क़ुरआन. 
कोई टर्किश हाफ़िज़ ढूंढे से नहीं मिलेगा टर्की में. 
काश भारत में ऐसा हो सके, 
क़ौम का आधा इलाज यूँ ही हो जाए.
हमारे मुल्क का बड़ा सानेहा ये मज़हब और धर्म है, 
इसमें मुदाख़लत न हिदू भेड़ें चाहेगी और न इस्लामी भेड़ें, 
इनके क़साई इनके नजात दिहन्दा बन कर इनको ज़िबह करते रहेंगे. 
हमारे हुक्मरान अवाम की नहीं अवाम की 'ज़ेहनी पस्ती' की हिफ़ाज़त करते हैं. मुसलमान को कट्टर मुसलमान और हिन्दू को कट्टर हिन्दू बना कर इनसे इंसानियत का जनाज़ा ढुलवाते हैं.



चलिए देखें कि अल्लाह तअला क्या फ़रमाता है - - -

''जिस शख़्स को अल्लाह तअला ने हराम फ़रमाया है उसको क़त्ल मत करो, हाँ मगर हक़ पर और जो शख़्स न हक़ क़त्ल किया जावे तो हम ने इस के वारिस को अख़्तियार दिया है सो इस के क़त्ल के बारे में हद से तजावुज़ न करना चाहिए वह शख़्स तरफ़दारी के क़ाबिल है.''
सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (३३)

मुहम्मद ने क़ुरआन नाज़िल करते वक़्त ख़्वाबो-ख़याल में ना सोचा होगा कि इंसानी इल्म और अक़्ल  इर्तेक़ाई मंजिलें तय करती हुई इक्कीसवीं सदी में पहुँच जाएंगी. वह ख़ुद से हज़ारों साल पहले इब्राहीमी दौर में अपनी उम्मत को ले जाना चाहते थे. पूरे क़ुरआन में तौरेती निज़ाम की तरह अपनी अलग ही लगाम बनाई. वह भी ग़ैर वाज़ेह. 
जान के बदले जान पर बना क़ानून है. 
कलाम से कोई बात साफ़ नहीं होती जिसे मौलानाओं ने उनके फ़ेवर में कर दिया है. 
साफ़ कलाम करने में अल्लाह की क्या मजबूरी हो सकती थी ?
मगर हाँ उम्मी मुहम्मद की मजबूरी ज़रूर थी. 
सितम ये कि मुसलमान इसे उनकी ज़ुबान नहीं मानते हैं बल्कि समझते हैं कि अल्लाह ऐसी ही ना समझ में आने वाली भाषा बोलता रहा होगा. फ़ख्रिया कहते हैं अल्लाह का कलाम समझ पाना बच्चों का खेल नहीं.
यतीम के मॉल को मत खाओ, 
अपने अहद पूरा करो. 
पूरा पूरा नापो तौलो. 
ज़मीन पर इतराते हुए मत चल क्यूँकि तू न ज़मीन फाड़ सकता है और न पहाड़ों की लम्बाई को पहुँच सकता है. 
ये सब काम तेरे रब के नजदीक ना पसंद हैं. 
यह बातें हिकमत की हैं जो अल्लाह तअला ने वहयि के ज़रीया आप को भेजा है. तो क्या तुम्हारे रब ने तुम को तो बेटों के साथ ख़ास किया है और ख़ुद फ़रिश्तों को बेटियाँ बनाई. बेशक तुम बड़ी बात कहते हो. आप फ़रमा दीजिए कि अगर उस के साथ और माबूद भी होते, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो इस हालत में उन्हों ने अर्श वाले तक का रास्ता ढूँढ लिया होता - - -
सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (३४-४२)

मुहम्मद जिन छोटी छोटी बातों को अल्लाह से कहलाते हैं, 
पढ़ने वाला समझेगा कि उस वक़्त अरब को इन की तमाज़त ना रही होगी मगर हो सकता है अनपढ़ पैग़म्बर के लिए यह बातें नई रही हों. 
आज इन्सान क़ुरआन की बातों के बदले में ज़मीन फाड़ भी रहा है और पहाड़ों की बुलंदियाँ भी उबूर कर रहा है. 
अगर यह बात आज मुसलमानों के समझ में आती है तो क़ुरआन की हक़ीक़त क्यूँ नहीं? 
कोई माबूद तो नहीं, मगर हाँ इन्सान ने अर्श पर सीढ़ियाँ लगा दी हैं, अल्लाह को वह क़ुदरत के अनोखे निज़ाम की शक्ल में पा भी रहा है. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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