Friday 29 June 2018

Soorah Kahaf 18 Q 6

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह कहफ़ 18 
(क़िस्त-6) 
अल्लाह का खोखला कलाम मुलाहिजा हो - - - 


''और उन्हों ने मेरी आयातों को और जिस से उनको डराया गया था, उसको दिललगी बनाए रक्खा है। - - -

सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (५७)

ऐ मुहम्मदी अल्लाह! 
तेरी आयतें तो हैं ही ऐसी कि दुन्या भर में मज़ाक बनी हुई हैं. 
बस मुसलमानों की आँखें ही नहीं खुल रहीं. अपना मज़ाक उड़ते देख कर उनको शर्म नहीं आती क्यूँ कि वह जन्नत के फ़रेब में मुब्तिला हैं, 
हालांकि उसमें भी अंततः दुर्गन्ध है. 



'' - - -और बस्तियां जब उन्हों ने शरारत की तो हमने उनको हलाक कर दिया.
''सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (५९)



और तू इंसानी बस्तियों के साथ कर भी क्या सकता था ? 
तेरे डाकिए मुहम्मद ने इंसानों को हैवान बना दिया, वह उसकी पैरवी में लग कर २०% इंसानी आबादी के पैरों में बेड़ियाँ डाले हुए हैं. 
इस वक़्त पूरी दुन्या मिल कर उनको फ़ना करने पर आमादा है.
मुसलमानों! 
जागो, आँखें खोलो. 
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई, 
देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है. 
कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाक़ी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी. 
तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो? 
तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा, 
जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है. 
इनका पूरा माफ़िया सक्रीय है. इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है. ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे, समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बग़ल में ही बैठे होंगे, तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो. 
वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है, 
गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, 
कोई मुफ़क्किर, 
कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत जो उसकी रोज़ी है, 
कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, 
तो कोई अज़ान देने का मुलाज़िम है, 
मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं कि चैनल के शाख़ का सवाल है. यहाँ तक कि इस ब्लाग की दुन्या में भी ऐसे लोगों ने अपने बच्चों के पोषण का ज़रीआ तलाश कर लिया है. 
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं. 
कोई जगाने वाला नहीं हैं. तुम खुद आँखें खोलनी होगी.
आज मैं आप के सामने मुहम्मद द्वारा गढ़ी एक कहानी को पेश कर रहा हूँ जिस में मुहम्मद की हक़ीक़त है कि वह और उनका अल्लाह कितने अधकचरे थे. 
इसमें देखने क़ि बात ये है क़ि इसके तर्जुमान ने अल्लाह और मुहम्मद की कितनी मदद की है, 
कहानी को एक बार ब्रेकट में दिए गए लाल रंग को छोड़ कर पढ़िए, 
दूसरी बार इस के साथ पढ़िए.
आप को अंदाज़ा हो जायगा कि इन ओलिमा ने झूट को सच का रूप देने में इस्लाम की कितनी सहायता की है.



''और(वह वक़्त याद करो) जब मूसा ने अपने नौकर से फ़रमाया कि मैं(इस सफ़र में) बराबर चला जाऊँगा, यहाँ तक कि इस मौक़े पर पहुँच जाऊँ जहाँ दो दरया आपस में मिले हैं, या (यूं ही) ज़माना-ए दराज़ तक चलता रहूँगा. पस जब (चलते चलते) दोनों के जमा होने के मौक़े पर पहुँचे, अपनी मछली को दोनों भूल गए और उस (मछली) ने अपनी राह ली और चल दी. फिर जब दोनों (वहां से) आगे बढ़ गए (तो मूसा ने), अपने नौकर से फ़रमाया कि हमारा नाश्ता लाओ हमको तो इस सफ़र में(यानी आज की मंज़िल में) बड़ी तकलीफ़ पहुंची. (नौकर ने) कहा कि (लीजिए) देखिए (अजीब बात हुई) जब हम उस पत्थर के करीब ठहरे थे सो मैं (उस) मछली (के तज़करे) को भूल गया और मुझको शैतान ही ने भुला दिया, कि मैं इसका ज़िक्र करता और (वह क़िस्सा ये हुवा कि) उस (मछली) ने (ज़िदा होने के बाद) दरया में अजीब तौर पर अपनी राह ली. (मूसा ने हिक़ायत सुन कर) फ़रमाया यही वह मौक़ा है जिसकी हम को तलाश थी. सो दोनों अपने क़दमों के निशान देखते हुए उलटे लौटे. सो (वहां पहुँच कर) उन्हों ने हमारे बन्दों में से एक बन्दे (यानी ख़िज़िर) को पाया जिनको हमने अपनी (ख़ास) रहमत (यानी मक़बूलियत) दी थी और उनको हमने अपने पास से (एक ख़ास तौर का) इल्म सिखलाया था. मूसा ने (उनको सलाम किया और) उन से फ़रमाया कि क्या मैं आप के साथ रह सकता हूँ? इस शर्त से कि जो इल्मे-मुफ़ीद को (मिन जानिब अल्लाह) आप को सिखलाया गया है, इस में से आप मुझको भी सिखला दें. (इन बुज़ुर्ग ने) जवाब दिया आप को मेरे साथ (रह कर मेरे अफ़आल पर) सब्र न होगा. और (भला) ऐसे उमूर पर कैसे सब्र करेगे जो आप के अहाते-वाक़फ़ियत से बाहर हो. (मूसा ने) फ़रमाया आप इंशा अल्लाह हम को साबिर (यानी ज़ाबित) पाएँगे. और मैं किसी बात में आप के ख़िलाफ़ हुक्म नहीं करूँगा, (इन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाया (कि अच्छा) अगर आप मेरे साथ रहना चाहते हैं तो (इतना ख़याल रहे कि) फिर मुझ से किसी बात के निसबत कुछ पूछना नहीं, जब तक कि उसके मुतालिक़ मैं ख़ुद ही इब्तेदाए ज़िक्र न कर दूं . फिर दोनों (किसी तरह) चले, यहाँ तक कि जब कश्ती में सवार हुए तो (इन बुज़ुर्ग ने) इस कश्ती में छेद कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया कि क्या आप ने इस कश्ती में इस लिए छेद किया (होगा) है कि इसके बैठने वालों को गर्क़ करदें? आप ने बड़ी भारी (यानी ख़तरा की) बात की. (इन बुज़ुर्ग ने) कहा क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया (मुझको याद न रहा था सो) आप मेरी भूल (चूक) पर गिरफ़्त न कीजिए और मेरे इस मुआमले में कुछ ज़्यादा तंगी न डालिए.
फिर दोनों (कश्ती से उतर कर आगे) चले, यहाँ तक कि जब एक (कमसिन) लड़के से मिले तो (इन बुज़ुर्ग ने) उसको मार डाला . मूसा (घबरा कर) कहने लगे कि आपने एक बेगुनाह को जान कर मार डाला (और वह भी) बे बदले किसी जान के, बे शक आप ने (ये तो) बड़ी बेजा हरकत की. (उन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाया क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ से सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया कि ( ख़ैर अब के और जाने दीजिए) अगर इस (मर्तबा) आप से किसी अम्र के मुतालिक़ कुछ पूछूं तो आप मुझको अपने साथ न राखिए. बेशक आप मेरी तरफ़ से उज़र (की इन्तहा) को पहुँच चुके हैं. फिर दोनों (आगे) चले फिर जब एक गाँव वालों पर गुज़र हुवा तो वहां वालों से खाने को माँगा कि (हम मेहमान है) सो उन्हों ने उनकी मेहमानी से इंकार कर दिया. इतने में इनको वहाँ पर एक दीवार मिली जो गिरा ही चाहती थी कि फिर उन बुज़ुर्ग ने उसको (हाथ के इशारे से) सीधा कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया अगर आप चाहते तो इस (काम) पर कुछ उजरत ही ले लेते.(उन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाय कि अब ये वक़्त हमारे और आप के अलहदगी का है (जैसा कि आपने खुद शर्त की थी) मैं उन चीज़ों की हक़ीक़त आप को बतलाए देता हूँ जिन पर आप से सब्र न हुवा. जो कश्ती थी वह चन्द आदमियों की थी जो (इसके ज़रीए) इस दरया में मेहनत (मजदूरी) करते थे सो मैं ने चाहा कि इसमें ऐब डाल दूं और (वजेह इसकी ये थी कि) इन लोगों के आगे की तरफ़ एक (ज़ालिम) बादशाह था जो हर (अच्छी) कश्ती को ज़बरदस्ती पकड़ रहा है. और रहा वह लड़का तो उसके माँ बाप ईमान दार थे सो हमको अंदेशा (यानी तहक़ीक़) हुवा कि ये इन दोनों पर सर कशी और कुफ्र का असर न डाल दे. पस हम को ये मंज़ूर हुवा कि बजाए इसके कि इनका परवर दिगार इनको ऐसी औलाद दे जो पाकीज़गी (यानी दीन) में इस से बेहतर हो और ( माँ बाप के साथ) मुहब्बत करने में इस से बेहतर हो. और रही दीवार, सो वह दो यतीम बच्चों की थी जो इस शहर में (रहते) हैं और उस (दीवार) के नीचे उन का कुछ माल मदफ़ून था (जो उनके बाप से मीरास में पहुंचा है) और उनका बाप (जो मर गया) एक नेक आदमी था. सो आप के रब ने अपनी मेहरबानी से चाहा कि वह दोनों अपने जवानी (की उम्र) को पहुँचें और अपना दफ़ीना निकाल लें. आपके रब की रहमत से और (ये सारे काम मैं ने ब-अल्हाम इलाही किए हैं इन में से) कोई काम मैं ने अपनी राय से नहीं किया. लीजिए ये है हक़ीक़त इन (बातों) की जिन पर आप से सब्र न हो सका.
''सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (५९-८२)  
कहानी के नाम पर ऐसी बेतुकी बकवास, वह भी इतनी बेढंगी.  
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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