Tuesday 19 June 2018

Hindu dharm darshan 196



शपथ गीता की, जो कहूँगा सच कहूँगा.

क़ुरआन मैं ५० सालों से पढ़ रहा हूँ, गीता बहुत पहले एक बार पढ़ी थी, 
मैंने हिन्दू धर्म शाश्त्रों के विरोध में ज़बान कभी नहीं खोली कि 
यह हिन्दू मुस्लिम मुआमला हो जाएगा.
मैं डरता था और सोचता था कि सिर्फ़ मुसलामानों को जगाया जाए, 
हिन्दुओं के तो बहुतेरे समाज सुधारक हैं. 
मगर एक दिन अन्दर से आवाज़ आई कि मैं तो डरपोक और पक्ष पाती हूँ.
आज का पाठक भी बहुत समझदार हो गया है , 
वह विषय में तथ्य को तलाशता है हिन्दू मुस्लिम संकीर्णता को नहीं. 
जो लोग बुनयादी तौर पर कपटी हैं उनकी बात अलग है.
बहुत पहले मनुवाद और गीता पढ़ी थी, दोबारा फिर पढ़ रहा हूँ. 
अब इनको समय के हिसाब से उदर पोषक लेखकों ने छलावरण के आभूषण से  और सजा दिया है. गीता प्रेस की ओरिजनल मनु स्मृति तो अब ढूंढें नहीं मिलती.
क़ुरआन में ओलिमाओं ने अपनी बात डालने के लिए - - - 
"अल्लाह के कहने का मतलब यह है - - - " 
का सहारा लिया है . 
मिसाल के तौर पर अल्लाह कहता है - - -
"क़ुरआन सुन कर जिन्नों ने कहा इसमें तो निरा जादू है," 
मुतरज्जिम {भावार्थी) आलिम कहता है - - -
लाहौलविलाकूवत (धिककार) जादू तो झूट होता है , 
इससे तो क़ुरआन झूट साबित होता है, 
" अल्लाह के कहने का मतलब यह है  - - - " 
फिर वह क़ुरआनी आयतों में मनमानी भरता है.
गीता में  इसी " अल्लाह के कहने का मतलब यह है  - - - " 
को "तात्पर्य" का सहारा लिया गया है. 
श्लोक के बाद "तात्पर्य" लगा कर उस में अपनी गन्दी मानसिकता उंडेलते हैं.
गोया यह किराए के टट्टू भगवान् के गुरु बन जाते हैं. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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