Tuesday 26 June 2018

Soorah Kahaf 18 Q 4

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह कहफ़ 18 
(क़िस्त-4) 
इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो।'' 
सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक काम  करो. 
हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, 
अगर वह राज़ी हो जाए? 
वह वाक़ई अगर अल्लाह है तो इसके लिए कभी राज़ी न होगा. 
अगर वह शैतान है तो इस की इजाज़त दे देगा. 
अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि इसके लिए इंशा अल्लाह कहने कि बजाए 
''इंशा शैतानुर्रजीम'' 
कहना दुरुस्त होगा. इसबात का गवाह ख़ुद अल्लाह है 
कि वह शैतान से बुरे काम कराता है. 
आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख़ को लौटा दूंगा. 
आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, 
क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यक़ीनी है, 
तो वापसी के काम में क्यूँ न होगी? 
चलो मान लेते है कि उस तारीख़ में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं, जाओ सुलूक करने वाले के पास, 
अपने आप को ख़ता वार की तरह उसको पेश कर दो. 
वह बख़्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक होगा. 

रघु कुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ पर वचन न जाई.
इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ'' 
दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, 
उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. 
जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इक़रार नामें हों या फिर नोट, 
कहीं इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. 
इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. 
मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख़्ता नहीं, 
बल्कि कमज़ोर कर दिया है, 
ख़ास कर लेन देन के मुआमलों में. 
क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह 
''इंशा अल्लाह'' 
कहने की हिदायत देती हैं, इसके बग़ैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को गुनहगारी बतलाती हैं. 
आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है.
उसके वादे, क़ौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या न करे. 
इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, 
नतीजतन पूरी क़ौम बदनाम हो चुकी है. 
मैंने कई मुसलामानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि 
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , 
इंशा अल्लाह '' 
तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, 
उनमें कशमकश आ गई. उनका ईमान यूँ पुख़्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, गोया कोई गुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. 
इस मुहम्मदी फ़ार्मूले ने पूरी क़ौम की मुआशी हालत को बिगाड़ रख्खा है. 
सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठा कर देखता है, 
फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? 
मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबा है. 
क़ौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. 
पक्षपात की वजेह से भी मुसलमान संदेह की नज़र से देखा जाता है .



मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की (ग़ालिब)



ग़ालिब का ये मिसरा मुसलमानों पर सादिक़ है कि इस्लामी तालीम ने उनको इंसानी तालीम से महरूम कर दिया है. 
मुसलमानों के लिए इससे नजात पाने का एक ही हल है 
कि वह तरके-इस्लाम करके दिलो-ओ-दिमाग़ से मोमिन बन जाएँ.

दीन दार मोमिन.
दीन= दयानत (सत्यता) + मोमिन = ईमान दार (इस्लामी ईमान नहीं)
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अब चलते है इन के ईमान पर - - -

''और आप किसी काम के निसबत यूँ न कहा कीजिए कि मैं इसको कल करूँगा, मगर ख़ुदा के चाहने को मिला दिया कीजिए. और जब आप भूल जाएँ तो रब का ज़िक्र किया कीजिए. और कह दिया कीजिए कि मुझको उम्मीद है कि मेरा रब मुझ को दलील बनने के एतबार से इस से भी नज़दीक तर बात बतला दे।''
सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (२४)



मुलाहिज़ा फ़रमाइए,
है न मुहम्मदी अल्लाह की तअलीम. इंशा अल्लाह


''और वह लोग अपने ग़ार में तीन सौ बरस तक रहे और नौ बरस ऊपर और है. आप कह दीजिए कि ख़ुदा तअला इनके रहने को ज्यादः जानता है तमाम आसमानों और ज़मीन का ग़ैब उसको है. वह कैसा कुछ देखने वाला और कैसा कुछ सुनने वाला है. इनका ख़ुदा के सिवा कोई मददगार नहीं और न अल्लाह तअला अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है.''

सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (२५-२६)



मुहम्मद एक तरफ़ अपनी भाषा उम्मियत में क़्फ़े का एलान भी करते हैं, 
फिर लगता है इसका खंडन भी कर रहे हैं कि 
''आप कह दीजिए कि ख़ुदा तअला इनके रहने को ज्यादः जानता है.'
वह ख़ुदसर थे किसी की दख़्ल अनदाज़ी उनको गवारा न थी , 
इसका एलान वह ख़ुदा ए तअला बनकर करते हैं कि 
''अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है.''



''और जो आप के रब की किताब वह्यी के ज़रीए आई है उसको पढ़ दिया कीजिए, इसकी बातों को कोई बदल नहीं सकता. और आप ख़ुदा के सिवा कोई और जाए पनाह नहीं पाएँगे''
सूरह कहफ़ १८ - पारा १५ आयत (27)



मुसलमानों! 
मुहम्मदी अल्लाह अगर वाक़ई अल्लाह होता तो क्या इस क़िस्म की बातें करता? 
जागो कि तुम को सदियों के वक्फ़े में कूट कूट कर इस अक़ीदे का ग़ुलाम बनाया गया है.

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