Friday 23 October 2020

मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत


मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत

मुसलमानों में दो तबके तअलीम याफ़्ता कहलाते हैं, 
पहले वह जो मदरसे से फ़ारिग़ुल तअलीम हुवा करते हैं और 
समाज को दीन की रौशनी (दर अस्ल अंधकार) में डुबोए रहते हैं, 
दूसरे वह जो इल्म जदीद पाकर अपनी दुन्या संवारने में मसरूफ़ हो जाते हैं. 
मैं यहाँ दूसरे तबक़े को ज़ेरे-बहस लाना चाहूँगा. 
इनमें जूनियर क्लास के टीचर से लेकर यूनिवर्सिटीज़ के प्रोफ़सर्स तक और इनसे भी आगे डाक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट तक होते हैं. 
इब्तेदाई तअलीम में इन्हें हर विषय से वाक़िफ़ कराया जाता है 
जिस से इनको ज़मीनी हक़ीक़तों की जुग़राफ़ियाई और साइंसी मालूमात होती है. 
ज़ाहिर है इन्हें तालिब इल्मी दौर में बतलाया जाता है कि 
यह ज़मीन फैलाई हुई चिपटी रोटी की तरह नहीं बल्कि गोल है. 
ये अपनी मदार पर घूमती रहती है, न कि साकित है. 
सूरज इसके गिर्द तवाफ़ नहीं करता बल्कि ये सूरज के गिर्द तवाफ़ करती है. 
दिन आकर सूरज को रौशन नहीं करता बल्कि 
इसके सूरज के सामने आने पर दिन हो जाता है. 
आसमान कोई बग़ैर ख़म्बे वाली छत नहीं बल्कि 
ला महदूद है और इंसान की हद्दे नज़र है. 
इनको लैब में ले जाकर इन बातों को साबित कर के समझाया जाता है 
ताकि इनके दिमाग़ से धर्म और मज़हब के अंध विश्वास ख़त्म हो जाएँ.
इल्म की इन सच्चाइयों को जान लेने के बाद भी यह लोग जब 
अपने मज़हबी जाहिल समाज का सामना करते हैं तो इन के असर में आ जाते हैं. 
चिपटी ज़मीन और बग़ैर ख़म्बे की छतों वाले वाले आसमान की झूटी आयतों को कठ मुल्लों के पीछे नियत बाँध कर क़ुरआनी झूट को ओढ़ने बिछाने लगते हैं. 
सानेहा ये है कि यही हज़रात अपने क्लास रूम में पहुँच कर 
फिर साइंटिस्ट सच्चाइयां पढ़ाने लगते हैं. 
ऐसे लोगों को मुनाफ़िक़ कहा गया है, 
यह तबका मुसलमानों का उस तबक़े से जो ओलिमा कहे जाते हैं, 
दस ग़ुना क़ौम का मुजरिम है. 
सिर्फ़ ये लोग अपनी पाई हुई तअलीम का हक़ अदा करें तो 
सीधी-सादी अवाम बेदार हो सकती है. 
मुनाफ़िक़त ने हमेशा इंसानियत को नुक़सान पहुँचाया है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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