Saturday 3 October 2020

अपना मुँह काला


अपना मुँह काला 

मैं कभी कभी उन घरों में चला जाता हूँ 
जो मुझे दावत देते है कि कभी मेरे घर भी आइए. 
उनके घरों में घुसकर मुझे मायूसी ही हाथ लगती है. 
उनके मालिकान अकसर अज्ञान हिन्दू और नादान मुसलमान होते है
दोनों ही प्रतिद्वंदता के ज़हर में बुझे हुए होते हैं. 
उनके फ़ालोअर्स एक दूसरे को इनवाईट करते हैं कि 
आओ, मेरी माँ बहने हाज़िर हैं, इनको तौलो. 
दोनों की भाषा गाली जवाब गाली होती है,
इन बेहूदों को इससे कम क्या लिखा जा सकता है.
ये दोनों एक दूसरे का मल मूत्र खाने और पीने के लिए 
अपने खुले मुँह पेश करते हैं. 
इनके पूज्य और माबूद अपनी तमाम कमियों के साथ 
आज भी इनके पूज्य और माबूद बने हुए हैं. 
ज़माना बदल गया है उनके देव नहीं बदले. 
उनको भूलने और बर तरफ़ करने ज़रुरत है 
न कि आस्थाओं की बासी कढ़ी को उबालते रहने की.
युग दृष्टा हमारे वैज्ञानिक ही सच पूछो तो हमारे अवतार और पयम्बर हैं 
जो हमें जीवन सुविधा प्रदान किए रहते है. 
इनकी पूजा अगर करने के लिए जाओ तो ये तुम्हारी नादानी पर मुस्कुरा देंगे 
और तुम्हें आशीर्वाद स्वरूप अपनी अगली इंसानी सुविधा का पता देगे. 
लेंगे नहीं कुछ भी.
हम दिन रात उनकी प्रदान की हुई बरकतों को ओढ़ते बिछाते हैं 
और उनके ही आविष्कारों को अपने फ़ायदे के सांचे में ढालकर 
एक दूसरे पर कीचड उछालते हैं, 
क्या ये ब्लागिंग की सुविधा हमारे वैज्ञानिकों की देन नहीं है? 
ये शंकर जी या मुहम्मदी अल्लाह की देन है ? 
जिसके साथ वह अपना मुँह काला करते रहते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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