Friday 30 October 2020

अज़ीम इन्सान


अज़ीम इन्सान 

समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुक़ाम को छूता है, ईसा की तरह. 
मौत के बाद वह महात्मा, ग़ुरू और पैग़मबर बन जाता है. 
इसका मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको ग़ुणांक में रुतबा देने लगता है, 
इसकी पूजा होने लगती है, 
अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. 
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, 
फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं 
और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. 
अज़ीम इन्सान की अज़मत का मुक़द्दस ख़ज़ाना, 
बिल आख़ीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. 
इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, 
जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िंदगी उसके पद चिन्हों पर चल कर ग़ुजारें. 
हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, 
जब कि ज़रुरत है  उनको आला और जदीद तरीन अख़लाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. 
मज़हबी तालीम की अंधी अक़ीदत, जिहालत का दायरा हैं. 
इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और 
ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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