Sunday 25 October 2020

हुक़ूक़ुल एबाद

हुक़ूक़ुल एबाद 

यानी बन्दों के व्यक्ति गत अधिकार 
इस्लाम का अहम् रुक्न (खंबा) है, 
जिसे मुल्ला और मोलवी दबाए हुए हैं कि इसके उबरने से उनका नुक़सान होता है. हुक़ूक़ुल इबाद के तहत अल्लाह अपने बन्दों से अपने हक़ों के वारे में दर्याफ़्त करेगा कि तुम मेरे हक़ में ईमानदारी से रहे? 
किसी को मेरा शरीक तो नहीं किया?
तुमने मेरी इताअत करते हुए कैसी जिंदगी ग़ुज़ारी ? 
नमाज़ की पाबंदी की? 
रोज़े रखते रहे, ख़ैरात ज़कात अदा करते रहे कि नहीं ? 
हैसियत पाने के बाद हज किया या नहीं?
इन सब सवालों का जवाब देता हुवा बंदा अगर पुले-सरात को पार कर जाता है तो उसके लिए जन्नत के दरवाज़े खुले होंगे, 
जहाँ हूरों का झुरमुट होगा, 
मोती के मानिद ग़िलमा (लौड़े) सर झुकाए खड़े होंगे, 
शराब की नहरें बहती होंगी, 
फलों के दरख़्त जन्नतियों के मुंह के सामने नमूदार हो जाएंगे. 
गोया जिन आशाइशों और ग़ुनाहों से तुम दुन्या में महरूम हो गए थे, 
उनकी भरपाई अल्लाह पूरा करेगा.

मगर, अगर तुम अल्लाह के उपरोक्त हुक़ूक़ को अदा नहीं किया तो, 
तुम्हारे लिए दोज़ख़ के दरवाज़े खुले होंगे. 
बसूरत दीगर तुम्हारी कोई दलील अल्लाह को भा गई 
तो वह तुम्हें मुआफ़ भी कर सकता है.
यहाँ तक अल्लाह और बन्दों का मुआमला हुवा.

इसके बाद बन्दों के साथ बन्दों का मुआमला शुरू होता है. 
सुना होगा मुसलमानों को कहते हुए कि 
 "हम हश्र मैदान में तुम्हारे दामन गीर होंगे"
अगर बन्दे ने बन्दे का हक़ अदा नहीं किया, या हक़ मारा, 
बेटे ने माँ बाप का हक़ नहीं अदा किया, 
पति ने पत्नी का हक़ अदा नहीं किया,
ज़िम्मेदारों ने अनाथ के हुक़ूक़ पर डाका डाला है, 
ऐसे तमाम मुआमलों में अल्लाह अपने हाथ खड़े कर देगा कि 
ऐसे मुजरिमों को तो मज़लूम ही मुआफ़ कर सकता है. 
मैं कुछ नहीं कर सकता.
समाजी मुजरिमों के हाथ लगी जन्नत, 
हाथ से निकल जाएगी और उसका हक़दार मज़लूम हो जाएगा.
पाक बाज़ ज़िन्दगी जीने के ऐसे ज़खीरों से इस्लाम ओत प्रोत है . 
कमीज़ में लगे चार गिरह हराम के टुकड़े से 
आपकी नमाज़ अल्लाह क़ुबूल नहीं करेगा. 
आपने पड़ोसी के छप्पर से दांत खोदने के लिए एक तिनका तोड़ा है, 
और इस अंदेशे के साथ कि कही कोई देख तो नहीं रहा ? 
ऐसा ख़याल आते ही आप ग़ुनाहगार हो गए, 
आमाल की बुनियाद पर जन्नत तो आपको मिलेगी मगर एक ज़ख्म के साथ.
इस्लाम की इन ख़ूबियों से जो लोग मालामाल हैं 
वह जंग, जिहाद, माल-ए-ग़नीमत की कल्पना भी नहीं कर सकते.
हक़ हलाल की रोज़ी का तसव्वर इस्लाम ने ही दुन्या को बख़्शा है.
हराम हलाल की कल्पना इस्लाम में पोशीदा सूफ़ीइज़्म की देन है.
क़ुरआन में इन बातों की कोई हलक नहीं.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. बे नामी26 October 2020 at 07:07

    आप ने " हक़ , हक , हक़ , लिखा है ।

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