Thursday 18 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (16)

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क़ुरआन ए ला शरीफ़  (16)

सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 2) 

मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ ख़ुद गिनवा रहा है, वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ़ बन कर. 
अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुसलमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है. जब तक उसका यक़ीन पुख़्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यक़ीनी है. ख़ुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौम ए जेहालत उम्मत ए मुहम्मदी हुवा करती थी. 

तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकड़ों तारीख़ी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, 
इन के सामने क़ुरआन हक़ीक़त में अल्लम ग़ल्लम से ज़्यादः कुछ भी नहीं. 
क़ुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे, तौरेत, इंजील को, तो तौरेत व इंजील की तौहीन है. 
क़ुरआन के मुताबिक़ मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के उसे यहूद नबी मुसलसल बढ़ाते गए जो बिल आख़ीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. 
ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. 
दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.
सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. 
यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह  अयाँ हैं. 
बहुत तरफ़सील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. 
ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, 
क़ुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. 
इनकी मौजूदयत को क़ुरआनी  अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नक़ली कहता है.
इस की सज़ा मुसलमानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ़ मुहम्मद की ख़ुद सरी, ख़ुद पसंदी और ख़ुद बीनी की वजह से चुकानी पड़ रही है. 
बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं
 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो क़ुरआन भेजा है वाक़ेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तसदीक़ करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह  भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले इमरान 3 आयत(3)
मुहम्मदी अल्लाह की वाक़ेअय्यत ऊपर बयान कर चुके हैं.

"जो लोग मुंकिर हैं, अल्लाह .तअला के आयतों के इन के लिए सज़ाए सख़्त है और अल्लाह .तअला ग़लबा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
सूरह आले इमरान 3 आयत(4) 
मुंकिर के लफ़्ज़ी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, 
इंसान या तो किसी बात का मुंकिर होता है या इक़रारी मगर लफ़्ज़ मुंकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम क़ुबूल कर के फिर जाना वाला मुंकिर हो जाना है, 
ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फ़रमाई है. 
जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख़्तियार पर क्यों न ग़ालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.? 
ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक़ का बातिल पैग़ाम है. ख़ालिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. 
मुसलमानों होश में आओ. क़ुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. 
इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख़्त जान फिर पनप आते हैं.

इसी तरह  अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, 
जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है, उनको भी मुहम्मद ने मुसलमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया. ख़ुद पैदा हुए उनके हज़ारों साल बाद.  
अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. 
काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? 
एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.

"जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश दूंढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह .तअला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान 3 आयत(6+7) 
मुहम्मदी अल्लाह अपनी क़ुरआनी  आयातों की ख़मियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह  की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे.)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते-नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? 
अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तज़ाद, का मतलब क्या है ?
हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह  लगते हैं. 
क्या अल्लाह की गुफ़्तगू ऐसी होनी चाहिए ??
दर अस्ल क़ुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड़ का एह मजमूआ है. 
इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है. 
वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं, वह बला होती हैं. 
अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. 
कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. 
कोई क़ुरआनी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, 
कायनात के किसी राज़ हाय का इन्केशाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मज़ाक़ बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे क़ुरआन में भरी पड़ी हैं, 
बस कि क़ुरआन की तारीफ़, 
तारीफ़ ? किस बात की तारीफ़ ?? उस बात का पता नहीं. 
इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुसलमान भी करता है. 
आम मुसलमान नहीं जनता की क़ुरआन में क्या है, 
ख़ास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफ़ी है. 
यह आयत बहुत ख़ास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अकसर लोगों को बहक़ते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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