क़ुरआन ए ला शरीफ़ (18)
सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران
(क़िस्त 4)
मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर ख़ुद को इस मैदान में छुपाते रहते,
मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह अल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा. इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफ़िरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग ''शायर है न'' है.
शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की,
मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं.
अर्थ हीन और विरोधा भाशी मुहम्मद की कही गई बातें
''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें.
सूरह आले इमरान 3 आयत 6+7)
यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे-हिरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन
''क़ुरआन''.
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, ख़ुद को पैग़म्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''मुश्तबाहुल मुराद '' कही जाती हैं.
क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख़्स के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलमानों को इस तरह समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फ़लाँ फ़लाँ में भी फ़रमाया है.
अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्क़ा है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं.
शिया कहे जाने वाले मुस्लिम हदीसें चिढ़ते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा.
तो लीजिए क़ुरआनी अल्लाह फ़रमाता है - - -
"अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"
सूरह आले इमरान 3 आयत (32)
क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं?
फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा?
क़ुरआन की इन दोग़ली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है.
वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफ़ा शाह से ज़्यादः नहीं समझते,
मुसलमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.
अल्लाह कहता है - -
"मोमिनों! किसी ग़ैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ. ये लोग तुम्हारी ख़राबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो, हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं. काफ़िरों से कह दो कि ग़ुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है. ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके.''
सूरह आले इमरान 3 आयत (33)
क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी ख़ुदाए बर हक़ की हो सकती हैं?
क्या जगत का पालन हार अगर, है कोई तो ऐसा ग़लीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा?
अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ,
नहीं ये ग़लाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं.
यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे तक को ज़ेबा नहीं देतीं, अल्लाह तो अल्लाह है.
ज़्यादः या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता.
मुसलमानों! जागो !!
कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए किसी शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो?
कलाम इलाही पर एक मुंसिफ़ाना नज़र डालो, आप को ऐसी तअलीम दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो .
एक हिंदू दूसरे हिन्दू से आपस में, मुझे भांपे बग़ैर बात कर रहे थे कि मुसलमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड़ रख दे,
उसकी बात की इस आयात से तस्दीक़ हो जाती है.
अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं,
अल्ला मियां!
आज आलिमान दीन तुम्हारी बातें ढकते फिर रहे हैं.
सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - - -
अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है,
इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? ) की गुफ़्तगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वह मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख़्स्त करता है जो पूरी हो जाती है,
(इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक़ मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी)
इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुसलमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं.
सूरह आले इमरान 3 आयत (34-48)
देखिए कि मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडि़या में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं
और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -
"बनी इस्राईल की तरफ़ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से.
वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अंदर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है.
और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ. मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से.
और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो.
बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."
सूरह आले इमरान 3 आयत (49)
उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाक़िये को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन हस्तियाँ रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं.
अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए.
ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने क़बीलाई लाख़ैरों को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अकसरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश क़ुरआनी लाल बुझक्कड़ड़ी मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.
इस मसअला का हल सिर्फ़ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फ़ायदा देख कर ही किसी के मसअले में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने ख़ुद के ही बड़े मसाइल हैं.
मुसलमानों!
बेदार हो जाओ, इन क़ुरआनी आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फ़ा की भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो.
"और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तसदीक़ करता हूँ इस किताब को जो तुम्हारे पास इस से पहले थी,यानी तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"
सूरह आले इमरान 3 आयत (50)
मुहम्मद के पास लौट फिर कर वह्यि बातें आती हैं, नया ज़्यादः कुछ कहने को नहीं है.
जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लग़वियात है.
यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. ग़ैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को ख़तरा क्यूँ है,
मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह ख़तरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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