Wednesday 3 February 2021

अकसरियत और अक़ल्लियत


अकसरियत और अक़ल्लियत

कार्ल मार्क्स ने कहा धर्म व मज़हब इंसान के लिए अफ़ीम होते है,
मैं कहता हूँ कि यह अफ़ीम से भी बढ़ कर हैं.
अफ़ीम का नशा तो आरज़ी होता है, कुछ देर के बाद उतर जाता है,
धार्मिक आस्था और मज़हबी अक़ीदा का नशा तो आखीर दम तक बना रहता है.
इस सिलसिले में हिन्दू अकसरियत मुस्लिम अक़ल्लियत के साथ थोडा ज्यादती करती है,
जैसा कि अकसरियत का स्वभाव होता है.
हिदुओं की आस्था है पूजा पाठ और दान पुण्य से अगला जनम संवर जाता है .
मुस्लिम अक़ीदा है कि नमाज़ रोज़ा और पाकीज़गी की ज़िन्दगी गुजरने के बदले,
ऊपर, यही ज़मीनी गुनाह सवाब बन जाएँगे,
हूरें और शराबें हलाल हो जाएंगी जो कि ज़मीनी ज़िन्दगी में हराम थीं.
हिन्दू और मुस्लिम दोनों के इस यक़ीन पर सिर्फ मुस्लिमों का मजाक बनता है?
यह अकसरियत का स्वभाव तो है मगर बहर हाल ग़लत है.
आस्था और अक़ीदत जब यक़ीन ही हदें पार कर जाती हैं तो वह हामला (गर्भित) हो जाती हैं.
वह सवाब और पुण्य को इसी ज़िन्दगी में ही भुनाना चाहती हैं.
अरब और हिन्द के जुग़राफ़ियाई हालात को समझने की ज़रुरत है.
अरब जिन्सियात (सेक्स) को फ़ोक़यत देते हैं और हिंदी मालियात को.
गर्भित आस्था जब जनती है तो बड़े बड़े जुर्म कर देती है,
अमानत में ख़यानत से लेकर अनाथ भतीजे की हत्या भी का देती है.
इसी तरह अक़ीदा जब हामला हो जाती है तो
जन्नत में मिलने वाली हूरों को ज़मीन पर ही हासिल करने की कोशिश करती है,
वह रिश्ते की तमाज़त को भी भूल जाती है.
एक बात और मैं अति सभ्य लोगों के की सेवा में लाना चाहता हूँ
कि एक काम जो लुक छिप कर किया जाता है तो वह पाप होता है,
वही काम एलानिया किया जाए तो भले ही वह पुण्य न हो जाए,
मगर पाप नहीं होता.
मेरा इशारा जिन्सियात (सेक्स) की ओर है जिस पर कभी फिर - - -
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment