Monday 13 August 2018

सूरह नूर - 24 क़िस्त - 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नूर - 24 
क़िस्त-2

 हुक्म है कि हर काम अल्लाह के नाम से शुरू किया जाय. 
यानी "बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम" पढ़ने के बाद. 
किसी जानदार को हलाल करो तब भी पहले मुँह से निकले बिस्मिल्लाह - - - ख़ुद क़ुरआन  पाठ में भी इस बात का एहतेमाम है. 
मगर कारी पहले पढ़ता है
 "आऊजो बिल्लाहे-मिनस-शैतानुर्रजीम"
 जिसका मतलब है "अल्लाह की पनाह चाहता हूँ उस मातूब (प्रकोपित) किए गए शैतान से" 
यहाँ पर शैतान ने अल्लाह मियाँ को भी गच्चा दे दिया कि क़ुरआन पाठ से पहले उसका नाम लेना पड़ता है, यानी उसकी हैबत से डर के बाद में अल्लाह मियाँ का नम्बर आता है. 
ये है मुहम्मद की अक़्ल-कोताह का नमूना. 
ऐसी बहुत सी ग़लतियाँ अल्लाह के कलाम में हैं जो बदली नहीं जा सकतीं. इसी तरह इस्लामी नअरा है 
"नअरे तकबीर-अल्लाह हुअकबर" 
यानी तकब्बुर (घमंड) का नअरा, अल्लाह बड़ा है. 
सवाल उठता है अल्लाह बड़ा है तो छोटा कौन है? 
बड़ा कहने का इशारा होता है कि इससे छोटा भी कोई है? 
यहाँ पर भी अल्लाह के मुक़ाबिले में छोटा अल्लाह यानी शैतान खड़ा हुवा है. 
दोनों की ख़सलतें भी एक जैसी हैं. दोनों हर जगह मौजूद हैं. 
दोनों इंसान के हर अमल में दख़्ल रखते हैं. क़ुरआन बार बार कहता है "अल्लाह जिसको गुम राह करता है उसको राहे-रास्त पर कोई नहीं ला सकता." 
शैतान भी लोगों को गुम राह करता है. 
मुसलमानों! 
शैतान को कहो
"अल्लाह-हुअसगर" 
यानी छोटे अल्लाह मियाँ.



"जो लोग अपनी बीवियों पर तोहमत लगाएँ और उनके पास बजुज़ अपने और कोई गवाह ना हो, तो उनकी शहादत यही है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खा कर ये कह दें कि बे शक मैं सच्चा हूँ और पाँचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की लअनत है, अगर मैं झूठा हूँ और इसके बाद उस औरत से सज़ा यूँ ही टल सकती है कि चार बार क़सम खा कर कहे कि ये मर्द झूठा है और पांचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की गज़ब हो, अगर ये मर्द सच्चा हो."

सूरह नूर - 24 आयत (6-9)

अक़्ल का पैदल अल्लाह और उसके क़ानून कितने नामुकम्मल हैं, 
मियाँ और बीवी में ज़ाहिर है कि इनमे कोई एक झूट बोल रहा होगा, 
तो क्या कर लोगे उसका ? 
या अगर दोनों मियाँ बीवी झूट बोल रहे हों तो? 
किसको सज़ा होगी, 
इसके सिवा कि झूठे को अल्लाह दोज़ख़ में डालेगा. 
जब गुनाहगारों को ऊपर की सज़ा तय है तो तुम नीचे ज़मीन पर 
ना मुकम्मल और जेहालत से भरी हुई सज़ा को क्यूं रवा रक्खे हो. 
जब तुम्हारे पास क़ानून बनाने की अक़्ल ही नहीं है तो क़ानून साज़ी का मज़ाक़ क्यूँ बना रहे हो? 
मुसलमानों अगर तुमने लाल बुझककड़ का नाम सुना हो तो तुम्हारा पैग़मबर लाल बुझककड़ था. उसको ख़ैर बाद कहक़र मोमिन की राह अपनाओ.  



"जिन लोगों ने (आयशा के निस्बत) तूफ़ान बरपा किया है वह तुम्हारे में का गिरोह है, तुम इसको अपने हक़ में बुरा न समझो बल्कि ये तुम्हारे हक़ में बेहतर ही बेहतर है. इस में से हर शख़्स  को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा और इनमें, इस तूफ़ान में जिसने सब से बड़ा हिस्सा लिया, उसको सज़ा होगी. जब तुमने ये बात सुनी थी तो अपने आपस वालों के साथ गुमान नेक क्यूँ ना किया, और ये क्यूँ न कहा ये सरीह झूट है. यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ न लाए. सो इस सूरत में ये लोग गवाह न लाए तो बस अल्लाह के नज़दीक ये लोग झूठे हैं. और तुम ने ये बात जब सुना था तो ये क्यूं ना कहा कि ये बात हम को ज़ेबा नहीं देता है कि ऐसी बात को मुँह से निकालें. ये तो बड़ा बोहतान है, अल्लाह तअला तुमको नसीहत देता है कि ऐसी हरकत दुबारा न करना, अगर तुम ईमान वाले हो. जो लोग चाहते हैं कि बाद नुज़ूल इन आयात के मुसलमानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आख़िरत में बड़ी सज़ा है".

सूरह नूर - 24 आयत (11-14)



मुहम्मद एक तरफ़ कहते हैं 

"तुम इसको अपने हक़ में बुरा ना समझो बल्कि ये तुम्हारे हक़ में बेहतर ही बेहतर है." 
साथ साथ कहते हैं 
" इस में से हर शख़्स को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा " तर्जुमा निगार ने यहाँ पच्चड़ लगा कर उम्मी मुहम्मद की मदद की है. 
यह वक़ेआ मुसलमानों के हक़ में बेहतर कैसे रहा? 
ये तो अल्लाह ही बेहतर समझे, मगर इसके लिए वह मुहम्मद को जवाब तलब क्यूँ नहीं करता जो आयशा से एक महीने तक बद दिल रहे. 
अल्लाह अपने आप को क्यूँ मुजरिम नहीं गर्दानता कि वह्यि भेजने में एक महीने की देर कर दी. ग़रीब आयशा इतने दिनों ज़िल्लत उठाती रही और बदनामी की ताब न ला कर बीमार हो गई? 
आयशा के साथ हादसे के एक महीने बाद अल्लाह का क़ानून आया चार गवाही का और मुहम्मद फ़रमा रहे हैं कि
 "यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ ना लाए" 
बात को समझें अगर समझ में आए तो मुहम्मद की अक़्ल  पर मातम करें. मुहम्मद का मक़सद था अपनी बीवी आयशा को बदनामी से बचाना, उनको मालूम है कि उस जगह तो आयशा और सफ़वान इब्ने मुअत्तल फ़क़त दो बशर थे, सेहरा में चार गवाह कहाँ से ला सकते थे इलज़ाम लगाने वाले? 
आयत-ए-मज़कूरा में चार गवाहों की बात भी ख़ूब रही, 
ये सोच कर ही आप लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकते है कि काश किन्हीं ज़ानियों के चश्म दीद गवाहों में एक आप भी होते. 
इस तसव्वुर पर आपको कोई गुनाह भी नहीं कि शरई हुक्म की पैरवी जो हुई. वैसे इंसानी फ़ितरत के हिसाब से इए मौक़े पर शरीके-ज़ानयान हो जाना ज़्यादः मुनासिब है, कौन ताब रख़ता  है कि ऐसे मौक़े से चूके. ज़ानयान को भी मुहम्मद से दो क़दम आगे होना चाहिए कि चार आदमी उसको देख रहे हों और वह उनको अपनी तस्वीरें उनकी गवाही के लिए कैमरों को चालू राहने दें .
इस हालत-ए-ज़िना का अमल ऐसा हो कि जैसे सुरमे दानी में सलाई 
आ, जा रही हो. 
इंसानों के लिए ये अमल ज़रा मुश्किल है मगर जानवरों की ज़िना कारी पर अगर ये गवाही होती तो कुछ आसानी होती. 
मुबाश्रत के वक़्त बड़े बड़े मुत्तकी जानवर हो जाते हैं, ये बात अलग है.
मुहम्मद की अक़्ल ए कोताह पर मातम किया जा सकता है कि इस वाक़ेए को क़ुरआन में चर्चा भी किए जा रहे हैं और कह रहे हैं - - -
" जो लोग चाहते हैं कि बाद नुज़ूल इन आयात के मुसलमानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आख़िरत में बड़ी सज़ा है".

"गन्दी औरतें गंदे मर्दों के लिए होती हैं और गंदे मर्द गन्दी औरतों के लिए होते हैं. सुथरे मर्द सुथरी औरतों के लायक़ होते हैं और और सुथरी औरतें सुथरे मर्द के लायक़ होते हैं."
सूरह नूर - 24 आयत (20)
असल पैग़म्बरी तो ये होती कि गन्दे मर्द और गन्दी औरतों के साथ शरीके-हयात बन कर उनकी गंदगी को दूर करो. 
अच्छे समाज की तामीर में इस तरहसे अच्छे लोग अपना तआवुन दें.

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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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