Wednesday 22 August 2018

सूरह फ़ुरक़ान-25 क़िस्त-4

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह फ़ुरक़ान-25 

क़िस्त-4

झूट का पाप=क़ुरआन का आप 

बहुत ही अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि क़ुरआन वह किताब है जिसमें झूट की इन्तेहा है. हैरत इस पर है कि इसको सर पे रख कर मुसलमान सच बोलने की क़सम खाता है, अदालतों में क़ुरआन उठा कर झूट न बोलने की हलफ़ बरदारी करता है. 
क़ुरआन में मुहम्मद कभी मूसा बन कर उनकी झूटी कहनियाँ गढ़ते हैं तो कभी ईसा बन कर उनके नक़ली वाक़िए बयान करते हैं. वह अपने हालात को कभी सालेह की झोली में डाल कर अवाम को बे वक़ूफ़ बनाते हैं तो कभी सुमूद की झोली में. जिन जिन यहूदी नबियों का नाम सुन रखा है सब के सहारे से फ़र्ज़ी कहानियाँ बड़े बेढंगे पन से गढ़ते हैं और क़ुरआन की आयतें तय्यार करते है. 
अल्लाह से झूटी वार्ता लाप, जन्नत की मन मोहक पेशकश और दोज़ख़ के भयावह नक्शे. झूट के पर नहीं होते, जगह जगह पर भद्द से गिरते हैं. 
ख़ुद झूट के जाल में फँस जाते हैं. जहन्नमी ओलिमा को इन्हें निकालने में दातों पसीने आ जाते हैं.वह मज़हब के कुछ मुबहम, गोलमोल फ़ार्मूले लाकर इनकी बातों का रफ़ू करते हैं जो मुसलमान भेड़ें सर हिला कर मान लेती हैं. 
मुहम्मद खुल्लम खुल्ला इतना झूट बोलते हैं कि कभी कभी तो अपने अल्लाह को भी ज़लील कर देते हैं और ओलिमा को कहना पड़ता है ''लाहौल वला क़ूवत''अल्लाह के कहने का मतलब यह है ( ? )
यही वजेह है कि क़ुरआन पढ़ने की किताब नहीं बल्कि तिलावत (पठन-पाठन) का राग माला रह गया है. गो कि इस्लाम में गाना बजाना हराम है मगर क़ुरआन के लिए क़िरअत की लहनें बन गई है. यह लहनें भी एक राग है मगर इसे हलाल कर लिया गया है. क़ुरआन को लहेन में गाने का आलमी मुक़ाबिला होता है. इसके अलावा इसको पढ़ कर मुर्दों को बख़्शा जाता है, इसको पढ़ने से ज़िदों को मुर्दा होने के बाद उज्र मिलता है. 
और यह अदालतों में हलफ़ उठाने के काम भी आता है.
मैं हलफ़ लेकर कह सकता हूँ कि क़ुरआन की आयतें ही भोले भाले मुसलमानों को जेहादी बनाती हैं. 
और मुस्लिम ओलिमा क़ुरआन उठा कर अदालत में बयान दे सकते हैं कि क़ुरआन सिर्फ़ अम्न का पैग़ाम देता है. 
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"और जब इन काफ़िरों से कहा जाता है कि राहमान को सजदा करो तो वह कहते हैं रहमान क्या चीज़ हैं, क्या हम उसको सजदा करने लगेंगे कि तुम जिसको कहोगे? और इससे इनको और ज़्यादः नफ़रत होती है."
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (60)

मुहम्मद की तमाम बिदअतों में एक बिदअत ये थी कि ख़ुदा के नए नए नाम तराशे थे, उनमे से एक था राहमान. बाशिदों को ये नाम अजीब सा लगा, लफ़्ज़ तो पहले से ही अपने मानवी एतबार से रायज था कि रहम दिल को राहमान कहा जाता था, इसे जब अल्लाह का दर्जा मिला तो मुख़ालिफ़त की बहसें होने लगीं. इससे मुतालिक़ एक हदीस - - -
- - - सुल्ह हदीबिया कुछ लफ़्ज़ी तक़रार के बाद पास हुआ. 
बिस्मिल्लाह-हिर राहमान-निर-रहीम पर फरीक़ मुख़ालिफ़ के फ़र्द सुहेल ने कहा  "ये रहमान कौन हैं ?  इनको मैं नहीं जानता, इनको बीच से अलग किया जाए और 'ब इस्मक अलम' से शुरूआत की जाय. और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह की जगह मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह करो." (बुखारी ११४४) 

इसे मुहम्मद को मानना पड़ा था.
ज़ाहिर है इस तरहअपने पूज्य का नाम बदलना किसको रास आएगा . 
अल्लाह की जगह मुसलमानों से भगवान कहलाया जाए तो कैसा लगेगा?

"और वह ज़ात बड़ी आली शान है जिसने आसमान में बड़े बड़े सितारे बनाए और इसमें एक चराग़ आफ़ताब और एक नूरानी चाँद बनाया और वह ऐसा है जिसने रात और दिन को एक दूसरे के आगे पीछे आने जाने वाले बनाए. उस शख़्स  के लिए काफ़ी है जो समझना चाहे.या शुक्र करना चाहे."
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (61-62)

मुसलमानों! क्या उम्मी के जेहालत भरे फ़लसफ़े ही तुम्हारा यक़ीन है? अगर हाँ तो अपनी नस्लों को तालिबानियों के सुपुर्द करते रहो और आने वाले दिनों में वह कुत्ते की मौत मरें, इस का यक़ीन करके इस दुन्या से रुख़सत हो. तुम्हारे लिए इस्लाम की हर बात ही नामाक़ूल है क्यूँकि इस्लाम जेहालत के पेट से पैदा हुवा है.

''और रहमान के बन्दे वह हैं जो ज़मीन पर अजिज़ी के साथ चलते हैं, शर की बात करते हैं तो वह रफ़ा-ए-शर की बातें करते हैं. और जो रातों को अपने रब के सामने सजदा और क़याम में लगे राहते हैं और जो दुआ मांगते हैं ऐ मेरे रब ! हम से जहन्नम के अज़ाब को दूर राख्यो.क्यूंकि  इसका अज़ाब तबाही है.''
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (63-65)
मुहम्मद अपनी उम्मत को अपनी दोहरी शख़्सियत से गुम राह करते हैं, 
यही अल्लाह के बने हुए रसूल के बारे में दूसरे ख़लीफ़ा उमर फ़रमाते हैं कि - - -
"फ़तह मक्का के बाद मुहम्मद हज करने जाते तो संगे-अस्वाद को बोसा देकर अकड़ कर चलते और यही हुक्म सब के लिए था, मगर बाद में देखा कि जईफों को इसमें क़बाहत हो रही है तो हुक्म को वापस ले या."
(बुखारी ७७६-७७)
  जिसका इरशाद था कि काफ़िरों को घात लगा कर मारो वह कह रहा है कि जो "शर की बात करते हैं तो वह (मुस्लिम) रफ़ा-ए-शर की बातें करते हैं." मुहम्मद पैग़म्बर होते तो पैग़ाम देते कि "दोज़ख़ कहीं नहीं है, इंसान के दिल में है जो उसे दिनों-रात भूना करती है, इस लिए बुरे काम मत करो." दोज़ख़ का तसव्वुर मुसलमानों का सबसे बड़ा नुक़सान है, इन कच्चे ईमान वालों को ये तसव्वुर जीते जी खाता राहता है कि वह इसकी वजेह से अपनी तामीर नहीं कर पा रहे है.

"और जो वह ख़र्च करने लगते हैं तो फ़ुज़ूल ख़र्ची करते हैं, और न तंगी करते हैं और उनका ख़र्च करना इसके दरमियान एतदाल पर हो, और जो अल्लाह तअला के साथ किसी और माबूद को शरीक नहीं करते और जिस शख़्स  को क़त्ल करने में अल्लाह तअला ने हराम फ़रमाया है उसको क़त्ल नहीं करते और जो शख़्स  ऐसा करेगा सज़ा से उसको साबेका पड़ेगा कि क़यामत के रोज़ उसका अज़ाब बढ़ता चला जाएगा. और वह हमेशा ज़लील होकर इस अज़ाब में रहेगा.
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (67-69)

मुहम्मद का मिशन है कि 
"अल्लाह कि इबादत करो और रसूल की इताअत." 
मुसलमान अपने बुज़ुर्गों पर हुवे मज़ालिम को भूल कर, जिनके गर्दनों पर तलवार रख कर कलिमा पढ़ाया गया था,  दो एक पुश्तों के बाद पूरी तरह से इस अरबी डाकू के मुट्ठी में फँस चुका है. इसको समझाना जूए शीर लाना है.
मुहम्मद किसी अपने शागिर्द को ख़र्राच होना पसंद नहीं करते थे. 
अल्लाह की राह में ख़र्च करने की हिदायत देते जो कि जेहाद की राह होती. देखिए कि क़ुरआन  ईरान से तूरान कैसे चला जाता है, कैसे मौज़ू बदल जाते है, अभी अल्लाह ख़र्च खराबे की बातें कर रहा था, कि उसे अपने लिए इबादत की याद आ गई, फिर हरम और हलाल क़त्ल करने की बातें करने लगा. ये इस्लाम ही है जहाँ क़त्ले-इंसानी हलाल भी होता है,

"और वह ऐसे हैं कि जब उनको अल्लाह के एहकाम के ज़रीया नसीहत की जाती है तो उन पर बहरे अंधे होकर नहीं गिरते.''
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (73)

उफ़ ! अय्यारे-आज़म कहते हैं कि उनकी इन बकवासों पर लोग मुतास्सिर हो कर क्यूँ बहरे अंधे होकर नहीं गिरते? ये इन्तहा दर्जे की गिरावट है कि एक इंसान दूसरे को इस क़दर ज़लील करे कि वह उसकी बातों को इतना माने कि बहरा और अँधा हो जाय. दुनिया भर के मुसलमानों की इस से बढ़ कर और क्या बद नसीबी होगी कि उनका राहनुमा इतना गिरा हुवा ज़ेहन रख़ता हो. कितना महत्त्वा-कांक्षी और ख़ुद पसंद था वह इंसान.

"और वह ऐसे हैं कि दुआ करते हैं कि ऐ हमारे परवर दिगार हमारी बीवियों और हमारे औलाद की तरफ़ से आँखों की ठंडक अता फ़रमा और हमको मुत्तक़ियों का अफ़सर बना दे.ऐसे लोगों को बहिश्त में रहने को बाला ख़ाने मिलेंगे. ब,वजह उनके साबित क़दम रहने के और उनको इन में बक़ा की दुआ और सलाम मिलेगा."
सूरह फ़ुरक़ान-25 आयत (75-76)

इस्लाम की बहुत बड़ी कमज़ोरी है दुआ माँगना. 
इस बेबुन्याद ज़रीया की बहुत अहमियत है. हर मौक़ा वह ख़ुशी का हो या सदमें का दुआ के लिए हाथ फैले राहते हैं. बादशाह से लेकर रिआया तक सब अपने अल्लाह से जायज़, नाजायज़ हुसूल के लिए उसके सामने हाथ फैलाए रहते हैं. जो मांगते मांगते अल्लाह से मायूस हो जाता है, वह इंसानों के सामने हाथ फैलाने लगता है. 
मुसलमानों में भिखारियों की कसरत इसी दुआ के तुफ़ैल में है कि भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है, देने वाला भी उसको इस ख़याल से भीख दे देता है कि मेरी दुआ क़ुबूल नहीं हो रही, शायद इसकी ही दुआ क़ुबूल हो जाए. 
दुआओं की बरकत का यक़ीन भी मुसलमानों को निकम्मा और मुफ़्त खो़र बनाए हुए है. 
कितना बड़ा सानेहा है कि मेहनत काश मजदूर को भी यह दुआओं का मंतर ठग लेता है. कोई इनको समझाने वाला नहीं कि ग़ैरत के तक़ाज़े को दुआओं की बरकत भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए. 
ख़ून पसीने से कमाई हुई रोज़ी ही पायदार होती है. यही क़ुदरत को भी गवारा है न कि वह मंगतों को पसंद करती है.
मुहम्मद की दुआ? इससे तो ख़ुदा हर मुसलमान को बचाए. 
मुहम्मद चाल घात की दुआएं भी मुसलमानों से मंगवाते हैं, कि दुआओं की बरकत से उनका अल्लाह मुत्तक़ियों का अफ़सर बना दे. गोया ऊपर भी हुक्मरानी की चाहत. दुआ मांगने वालों को बाला ख़ाने मिलेंगे, 
भूखंड और तहखाने ऐरे ग़ैरों को. 
मुहम्मदी जन्नत में जन्नतियों को बराबरी का दर्जा न होगा कोई सोने की जन्नत में होगा तो कोई जमुर्रद की, तो  किसी को जन्नतुल फ़िरदौस जोकि सब से कीमती जन्नत होगी . 
जिब्रील अलैहिस्सलाम ने पता नहीं क्यूँ मुहम्मद की पहली बीवी  ख़दीजा को खोखले मोतियों की जन्नत अलाट की है. हैरत है कि मुसलमान किसी आयत पर नज़रे सानी नहीं करता. 
हर मस्जिद में गिद्ध बैठे हुए है जो क़ौम का बोटियाँ नोच नोच कर खा रहे हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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