Wednesday 15 August 2018

सूरह नूर - 24- क़िस्त-3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नूर - 24
क़िस्त-3

 देखें कि अल्लाह जीने के आदाब सिखलाता है - - -
"जहाँ तक हो सके बे निकाहों का निकाह पढ़ा दिया करो और इसी तरह तुम्हारे ग़ुलाम और लौंडियो में. जो माली तौर पर निकाह की हैसियत नहीं रखते, वह अपनी नफ़स पर काबू रक्खें. ग़ुलामों में जो मकातिब (मालिक की शर्त पर ग़ुलाम मुक़रर्रह  वक्क्त पर कोई काम करके दिखा दे तो वह मकातिब हो जाता है) होने के ख्वाहाँ हों उनको तआवुन करो "
सूरह नूर - 24 आयत (32)

पैग़म्बर का साफ़ साफ़ पैग़ाम है कि ग़रीब लौड़ी और ग़ुलाम अपने नफ़्स पर जब्र करके अज्वाज़ी ज़िन्दगी से महरूम रहे, 
ये पैग़म्बरी नहीं इंसानियत सोज़ी है. 
लौंडी और ग़ुलाम कोई मुजरिम नहीं होते थे यह जेहादी गुंडा गर्दी के शिकार क़ैदी हुवा करते थे.
यह पुराने ज़माने की अख़्लाक़ी फ़रायज़ आज लागू नहीं होते तो इसे आज क्यूँ तिलावत में दोहराया जाय. 
वैसे अल्लाह का कलाम ऐसा होना चाहिए जो कभी पुराना ही न पड़े. 
पेड़ों का खड़खड़ाना, चिड़ियों का चहचहाना, बादलों का गरजना, हवा की सर सर ही अल्लाह के कलाम हैं. 
कोई इंसानी भाषा अल्लाह का कलाम नहीं हो सकती.
ऐ गुलामाने-रसूल!
मकातिब करने का वह ज़माना लद गया, तुम भी मुहम्मद की ग़ुलामी से नज़ात पाओ. हवा का बुत क़ायम किया था और नाम दिया था वहदानियत. मुहम्मद ने मुस्लिम, काफ़िर और मुशरिक का साज़िशीजाल बुना, फिर उस जाल का शिकार ऐसा कारगर साबित हुवा कि  इंसानी आबादी का बीसवाँ हिस्सा उसमें ऐसा फँसा कि निकलना ना मुमकिन हो गया, 
फड़फड़ा रहा है, इस जाल से मकातिबत की कोई सूरत उसके लिए नहीं बन पा रही है, पूरा का पूरा माफ़िया आलमी पैमाने पर मुसलमानों पर नज़र रख़ता है, कि वह इस्लामी ग़ुलाम बने रहें ताकि हराम खो़रों का राज क़ायम रहे.
मुसलमानों! आपको मकातिब तो होना ही है. 
पैग़मबरी वह है जो ग़ुलामी से इंसानों को मुकम्मल आज़ाद करे. 
पैग़म्बर भी कहीं लौंडी और ग़ुलाम रख़ता  है ?

"अपनी लौंडियो को ज़िना करने पर मजबूर मत करो, ख़ास कर अगर वह पाक बाज़ है, महेज़ इस लिए कि कुछ मॉल तुम को मिल जाय. इसके बाद जो मजबूर करेगा तो अल्लाह तअला उसे मुआफ़ करने वाला है और मेहरबान है. हमने तुम्हारे लिए खुले खुले अहकाम भेजे हैं."
सूरह नूर - 24 आयत (33)

यह अल्लाह के रसूल हैं जो अपने अल्लाह की दी हुई रिआयत का एलान करते है कि
मुसलमान अगर भडु़वा गीरी भी करे तो वह मुहम्मदी अल्लाह उसे मुआफ़ करने वाला है.
क़ौम के लिए कितना शर्मनाक ये पैग़ाम है.नतीजतन इस ज़लील पेशे में भडु़वा बने हुए अकसर मुसलमानों को पेट भरते देखने को मिलेगे. पाकबाज़ औरत को लौंडी बनाना ही नापाकी है. 
उसके बाद उस से पेशा कराना भी अल्लाह को गवारा है.
लअनत है.
एक शरई पेंच देखिए कि एक तरफ़ इसी सूरह में ज़ानियों को सौ सौ कोड़े रसीद करने का क़ानून अल्लाह नाज़िल करता है और इसी सूरह में लौंडियों से ज़िना कारी कराने की छूट देता है. 
ग़ौर तलब ये है कि ज़िना यक तरफ़ा तो होता नहीं, इस लिए मुसलमानों को ज़िना करने की रिआयत भी देता है और सज़ा भी. 
ये क़ुरआन  का तज़ाद (विरोधाभास् ) है.   

मुसलमानों ! क्या तुम्हारा ज़मीर बिलकुल ही मुर्दा हो चुका है और अक़लों पर पाला पड़ गया है ? इन आयतों को आग लगादो, इस से पहले कि दूसरे इस काम की शुरुआत करें.

"अल्लाह तअला नूर देने वाला है. आसमानों का और ज़मीन का. इसके नूर की हालाते-अजीबिया ऐसी है जो एक ताक है, इसमें एक चिराग़ है, ये चिराग़ एक क़नदील में है और वह क़ंदील ऐसी है जैसे एक चमकता हुआ सितारा हो.चिराग़ एक निहायत मुफ़ीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह ज़ैतून है जो न पूरब रुख़ है न पच्छिम रुख़ है. इसका तेल ऐसा है कि अगर आग भी न छुए, ताहम ऐसा मालूम होता है कि ख़ुद बख़ुद जल उठेगा. नूर अला नूर है और अल्लाह तअला अपने तक जिसको चाहता है  राह दे देता है. अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयान फ़रमाता है"
सूरह नूर - 24 आयत (34)

ख़ुद साख़्ता पैग़म्बर मुहम्मद की ये अफ़साना निगारी का एक नमूना है, पहले भी उनकी तख़लीक़ आप देख चुके हैं,
उनकी मिसालों को भी देखा है, सब बेसिर पैर की बातें होती हैं. 
मुसलमान कहाँ तक एक उम्मी की पैरवी करते रहेंगे. जिसे बात करने की तमीज़ न हो वह अल्लाह की तस्वीर खींच रहा है. 
लिखते हैं
".चिराग़ एक निहायत मुफ़ीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह जैतून है" चराग़ ज़ैतून के दरख़्त से रौशन कर रहे हैं?
ओलिमा मुहम्मद की बैसाखी बन कर लिखते है (गोया ज़ैतून का तेल) कहते हैं
"जो न पूरब रुख़ है न पच्छिम रुख़ है" ?
तो उत्तर या दक्खन रुख़ होगा. किसी रुख़ तो होगा ही, 
इसका ग़ैर ज़रूरी तज़करह क्या मअनी रख़ता है? 
तेल की तारीफ़ में अल्लाह की तारीफ़ भूल जाते हैं, 
तेल नूर अला नूर है. 
अल्लाह का नूर तो उनसे बयान भी न हो पाया.

"अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयान फ़रमाता है "
यह है मुहम्मद की मिसाल का चैलेन्ज जिसको मुसलमान दावे के साथ कहते है कि क़ुरआन की एक लाइन भी बनाना बन्दों के बस का नहीं. 
अगर उनके अल्लाह की यही लाइनें हैं तो शायद वह ठीक ही कहते होंगे. कौन अहमक ऐसे अल्लाह के मुक़ाबिले में आएगा.

"और वह लोग बड़ा जोर लगा कर क़समें खाया करते हैं कि वल्लाह अगर आप उनको हुक्म दें तो वह अभी निकल खड़े हों, कह दो कि बस क़समें न खाओ, फ़रमाँ बरदारी मालूम है. अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी ख़बर रख़ता  है. आप कहिए कि अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो, फिर अगर रूगरदनी करोगे तो समझ रखो कि रसूल के जिम्मे वही है जिसका इन पर बार रखा गया है और तुमने अगर इनकी इताअत करली तो रह पर जा लगोगे और रसूल की ज़िम्मेदारी साफ़ तौर पर पहुंचा देना है.'
सूरह नूर - 24 आयत (53-54)

मुहम्मद अपने जाल में फँसे हुए किसी मुसलमान पर इशारतन तनक़ीद कर रहे हैं जो कि उनका हर उल्टा सीधा कहना नहीं मानता, धमका रहे हैं कि
 "अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी ख़बर रख़ता  है"
गोया अल्लाह निज़ाम कायनात को कुछ दिन के लिए मुल्तवी करके मुहम्मद की मुख़बरी कर  रहा है. या यह कहा जाए कि अल्लाह की आड़ में ख़ुद मुहम्मद अल्लाह बने हुए हर एक अपने बन्दों की ख़बर रखते हैं.
ना फ़रमाँ बरदारी करने वाले को छुपी हुई धमकी भी साथ साथ दे रहे हैं कि उनकी तरफ़ से अल्लाह की मर्ज़ी काम करेगी. 
हर हाल में अपनी इताअत इनकी ख़ू थी.

"बड़ी बूढ़ी औरतें जिनको निकाह की कोई उम्मीद न रह गई हो, उनको कोई गुनाह नहीं कि वह अपने कपड़े उतार रखें.बशर्ते ये कि ज़ीनत का इज़हार न करे और इससे भी एहतियात रखें तो उनके लिए और ज़ियादः बेहतर है.
सूरह नूर - 24 आयत (60)

मुहम्मद बद क़िसमत थे कि उनकी बड़ी बूढ़ी कोई नहीं थी वरना ऐसी बेहूदा राय औरतों को न देते.

"तुम लोग रसूल के बुलाने को ऐसा न समझो जैसे तुम में एक दूसरे को बुला लेता है. अल्लाह उन लोगों को जानता है जो आड़ में होकर तुम में से खिसक जाते हैं, सो जो लोग अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफ़त करते हैं उनको इस से डरना चाहिए कि उन पर कोई आफ़त आ पड़े या उन पर कोई दर्दनाक अज़ाब नाज़िल हो जाय."
सूरह नूर - 24 आयत (63)

मुहम्मदी अल्लाह की हक़ीक़त को उस वक़्त सभी जानते थे और उनकी बातों को सुन कर इधर उधर हो जाया करते थे. वह मुसलमान तो मजबूरन बने हुए थे कि मुहम्मद के पास हराम खो़र लुटेरों की फ़ौज थी जो, आज भी अपने समाज में जो बाहुबल होते हैं. क़ानून उनका, और कहीं कोई अदालत नहीं. बरसों इस्लामी हथौड़ों से पिटने के बाद आज उन बा ज़मीरों की नस्लों ने मुहम्मद की हठ धर्मी को धर्म मान लिया गया है.
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