Friday 12 June 2020

तबलीग़ी आलिम

तबलीग़ी आलिम 

पिछड़ा तबक़े का ग़रीब मुसलमान, संम्पन्न मुसलमानो के बीच रह कर उनका दास  बना रहता है.
उन्हीं के मशविरे से वह अपने बच्चों को ख़ैराती मदरसों में डाल देते है. 
यही बच्चे शारीरिक और मानसिक वेदना को झेलते हुए दीनी तालीम पूरी करते हैं.
वह वहां की ऊंची डिग्री पाते पाते जवान हो जतेहै और जब ज़रीआ मुआश तलाश करने जाते है तो आठ दस साला तालीम किसी काम नहीं आती, बस कि वह मस्जिद में नमाज़ पढाएं या फिर समाज के बच्चों घर घर जाकर दीनी तालीम दें.
फिर भी इनकी तादाद ज़्यादा होती और नौकरी कम. 
आलिम फ़ाज़िल होने के बाद अपना रख रखाव क़ायम रख पाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता है. मशक़्क़त इनसे हो नहीं पाती और मशक़्क़त को यह मायूब समझत है कि एक मोलवी लुहार के नीचे घन चलाए ? 
कुछ इनमे से तबलीग़ी बन जाते हैं और घर घर जाकर लोगों से नमाज़ पढने का  प्रचार करते हैं, इसी में वह अपनी रोटी चलाते हैं.
मेरे इनके साथ अक्सर मशग़ले होते रहते है. 
यह 5-6 इकट्ठे होते हैं और दरवाज़ों की घंटी बजा देते हैं. 
इनके सलाम के जवाब में मैं कभी कभी नमस्कार कह  देता हूँ 
तो कभी कह देता हूँ कि मैं नमाज़ नहीं पढता.
यह सलाम के बाद हाथ ज़रूर मिलाते हैं और मैं अपने हाथ खींच लेता हूँ.
यह कहते हुए कि इस तरह अचानक किसी के घर फाट पड़ना ग़ैर अख़्लाक़ी फ़ेल है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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