Monday 8 June 2020

ऐ ज़मीर मै तुझ से शर्मिंदा हूँ


ऐ ज़मीर मै तुझ से शर्मिंदा हूँ

"मै गवाही देता हूँ अल्लाह के सिवाये कोई माबूद (पूजनीय) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल है"
यह एक जादुई फिक़रा है जिसे पढ़ते ही आपके ब्लड रिलेटिव्स आप के नज़दीक ग़ैर हो जाते हैं। आपका आपके इतिहास से नाता टूट जाता है, अपका भूगोल भी बदल जाता है।
आप पांच नदियों के मीठे पानी के बजाय दूर के रेगिस्तान की रेत फ़ाँकने में फ़ख़्र महसूस करते हैं।
क्योंकि इसे कहने वाला तुरंत मुसलमान बन जाता है इस्लाम की नज़र में..।
और क्या अजीब संयोग है कि यह फिक़रा यानी जिसे "कलमा ए शहादत " कहा जाता है ये कुरआन में सिरे से मौजूद नहीं, जो दुनिया भर के इल्म समेटे होने की दावेदार है।
ये तो बहुत बाद की उपज है, एक बिदअत है, और यह बिदअत मुल्लों से उनका अतीत छीन चुकी है, मुल्लों का हाल बदहाल और भविष्य अन्धकार किए हुए हैl
दुनिया की किसी भी अदालत में गवाही देने के लिए आपका उस घटना का प्रत्यक्ष दर्शी होना जरूरी होता है।
लेकिन इस वाक्य से आप एक ऐसी गवाही दे रहे होते हैं जिसके आप प्रत्यक्ष दर्शी नहीं हैं। आपके पास कभी कोई ऐसा सबूत नहीं कि जो आप कह रहे हैं यह वास्तव में सच है या नहीं।
यह सारा कमाल बचपन की प्रोग्रामिंग का है।
झूठ बोलना तो किसी भी समाज में सही नहीं माना जाता लेकिन जब आप झूठी गवाही देते हैं तो वह गुनाह माना जाता है।
कभी समय मिले तो मुल्लों को अपने विवेक की अदालत के सामने खुद को पेश करके और क़ुबूल करना चाहिए कि उन्होंने एक झूठी गवाही दी, 
"कि मैं इस बात को न ही शाहिद हूँ और न ही मैं यह गवाही दे सकता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं या किसी दूसरे माबूद का कोई वजूद नहीं और इसी माबूद ने किसी को पैगाम देकर भेजा"।
कहते हैं एक झूठ अधिक झूठ को जन्म देता है और इसी वजह से मुल्लों ने कभी किसी की उंगली से चाँद के दो टुकड़े होने का दावा किया, कभी एक पंखों वाले गधे पर बैठ कर किसी के कायनात से बाहर जाने की कहानियां सुनाईं।
तो कभी अबाबील की छोटी कनकरों से हाथियों का लश्कर तबाह की खबर सुनाई।
खुले दिल से कहो मुल्लों, 
ऐ ज़मीर में तुझ से शर्मिंदा हूँ.....
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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