Tuesday 23 June 2020

नया इस्लाम

नया इस्लाम 

मुसलमानों ! दो टुकड़ों में तुम्हारा ईमान है 
(1) लाइलाहा इललिललाह 
(2) मुहम्मदुर रसूललिल्लाह 
जिसके मअनी हैं, अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं 
और मुहम्मद उसके पैग़म्बर (डाकिया) हैं. 
इस्लाम ग्रहण करने के लिए पहला कलिमा भी है.
यह दोनों बातें ईमान नहीं, अव्वल दर्जे की बेईमानी है. 
अभी तक साबित नहीं हो पाया है अल्लाह एक है या अनेक, 
अल्लाह है भी या नहीं ? 
लाखों. करोड़ों बल्कि अरबों साल गुज़र चुके हैं, 
अल्लाह का कहीं भी पता नहीं लग पाया. 
वह भी इस्लामी अल्लाह जो हर वक़्त हिमाक़त की बातें करता है. 
ऐसे अल्लाह का कोई पैग़म्बर (डाकिया) हो सकता हैं ? 
अपने इस कलिमे की वजह से मुसलामानों !
तुम दुन्या की सब से जाहिल क़ौम बने हुए हो. 
दुन्या को छोडो, हिंदुस्तान की बात करो जहाँ दर दर तुम रुसवा हो रहे हो. 
तुम्हारी वजेह से देश की अक्सरियत को नहीं जगाया जा सकता. 

मोहन भागवत अलल एलान कहता है - - -
"मुसलमान ज़िन्दा तो मनुवाद ज़िन्दा है मुसलमान तो चाहिए ही भारत के लिए." यानी हिन्दुत्व की बक़ा इस्लाम पर निर्भर है. 
मोहन भागवत क़ल्ब ए सियाह होते हुए भी कितना सच बोल रहा है. 

इस्लाम की दो दाग़ दार हस्तियाँ हैं - - - 
पहला मुहम्मद और दूसरा क़ुरआन. 
इनको जिसारत के साथ अगर मुसलमान तर्क कर दें 
तो उनकी सूरत खरे सोने की तरह वजूद में आ सकती है. 
मुहम्मद 
मुहम्मद जिन जेहादों में शरीक हुए उन्हें ग़िज़वा कहा जाता है.
इन जंगों में मुहम्मद ने एक ज़ालिम व जाबिर की तरह दिखते हैं . 
(जंग ख़ैबर की दास्तान देखें ) 
जान माल की पामाली क़त्ल व ग़ारत गरी की इन्तहा कर देते हैं, 
लूट पाट को माल ए ग़नीमत कहा. 
मर्दों को क़त्ल कर के उनकी औरतों को लौंडी बना लेते थे 
और जंग जूओं में उन्हें तक़सीम कर दिया करते थे 
जिनके साथ संभोब ज़िना कारी न होती. 
पहले जंगें ऐसे ही हुवा करती थीं बल्कि यहूदियों की इससे ज़्यादा ज़ालिमाना. 
मगर धर्म के नाम पर ऐसी बरबरियत, कम देखी गई है.
यही जेहाद इस्लाम को सदियों बाद आज भी ख़्वार किए हुए है. 
मुहम्मद के मरते ही ग़िज़वा नुमा जेहाद का लगभग ख़ात्मा हो गया. 
मगर जेहाद का सिलसिला जारी रहा. 
जिहाद की शक्ल यह थी कि मुल्कों के हुक्मरानों पर मुसलमान हमला करते थे, उन पर तीन शर्त रखते थे. 
मुसलमान बनो, या जज़िया दो या फिर जंग करो. 
इंसानी तहज़ीब की इर्तेक़ाई (रचना कालिक) हालात को मद ए नज़र रखते हुए यह तरीक़ा किसी हद तक ग़नीमत था. 
पहले जंगें ऐसे ही हुआ करती थीं.    

मैं कुछ भटक रहा हूँ, आता हूँ मुद्दे पर. 
मुहम्मद की जो अब माज़ी हो चुके है, कुछ झलक मैंने दिखलाईं.
अब क़ुरआन की बात पर आइए जो माज़ी नहीं हुआ है, 
आज भी हर्फ़ बा हर्फ़ मौजूद और मयस्सर है. 
इसमें 99% ख़ुराफ़ात है, 1% सच है, वह भी क़ुरआनी सच नहीं, आलमी सच है.  

 मुसलमानों ! पूरे क़ुरआन को रद्दी की टोकरी में डाल दो. 
क़ुरआन ने नाम पर सिर्फ़ सूरह फ़ातेहा को मुकम्मल क़ुरआन कर लो. 
सूरह फ़ातेहा किसी यहूदी की रची हुई दुआ है जिसे यहूदी भी दुआ की तरह पढ़ते हैं.
जब तक खौ़फ़ ए इलाही से फ़ारिग़ नहीं होते, इसे दिन में एक बार पढ़ लिया करो.
 बहाई मज़हब की इबादत भी दिन एक बार में सिर्फ़ दस मिनट के लिए होती है 
जिसमें कोई भी शरीक हो सकता है. 

मुसलमानों के सात कलिमें हैं जिनमे एक से बढ़ कर एक जहालत की बातें हैं, इसी वजह से किसी मुसलमान को सातों कलिमें याद नहीं हो पाते. 
पहला कलिमा, कलिमा ए शहादत के नाम से जाना जाता है 
जिका उल्लेख हम शुरू में कर चुके हैं. 
अपने कलिमें भी बदलो. 
इसको जदीद रौशनी में कुछ इस तरह कर लो.
पहला कलिमा सदाक़त (सच)   1-फ़ितरी ( लौकिक) सच के सिवा कोई सच नहीं. 
दूसरा कलिमा मशक्क़त           २- हक़ हलाल की रोज़ी ही जायज़ हो.
तीसरा कलिमा मुहब्बत             3- हर इंसान और मख़लूक़ से प्यार हो.
चौथा कलिमा मुरव्वत                4- हर इंसान के साथ रवादारी हो.
पांचवां कलिमा इजाज़त              5- हर इंसान को अपने किसी भी फ़ेल (कर्म) की आज़ादी जिसमे किसी दूसरे का नुकसान न हो.                             छटां कलिमा इबादत                  6- सफ़ाई और ज़मीन को सजाना,  संवारना ही  इंसानी पूजा हो.                                                               
 और सातवाँ कलिमा अज़मत      7- इंसान और दीगर जीव के फ़लाह के लिए किए हुए काम पर फ़र्द को दर्जा बदर्जा रुतबा और मुक़ाम  बख़्शा जाए. मूजिद को पैग़म्बर माना जाए.
                                                       
   सारी दुन्या के इंसानों ! सहल और सहज हो जाओ, बजाए मुश्किल के.



                                                  
                                                      




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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