Thursday 25 June 2020

मैं ख़ुदा हूँ

मैं ख़ुदा हूँ 

मैं ख़ुदा की तलाश में बहुत दूर तक निकल जाता हूँ ,
मुझे कुछ नहीं मिलता, सिवाय ख़ुद के. 
मैं ख़ुद को ही ख़ुदा पाता हूँ.
मुकम्मल और बा अख़्तियार ख़ुदा. 
इस बात का इक़रार एक ख़ुश गवार अहसास होता है, 
मगर इस बात का एलान हिमाक़त है, जैसा कि मंसूर ने किया. 
प्रचलित ख़ुदाओं की इबादत, भक्ति और कर्मकांड की पैरवी है, 
अपनी पसंद नहीं, बस नक़ल भर है, और ढोंग भी.
 ख़ुद में ख़ुदा बन कर ज़िंदगी बिताने में बड़ा आनंद है, बहुत मज़े हैं. 
सब से बड़ी नेमत यह है कि इस में आज़ादी का एहसास होता है. 
ख़ुद में ख़ुदा बन कर जीना बहुत ही आसान है, 
बस कि जो ख़ुद अपने लिए चाहो, वही दूसरों के लिए भी पसंद करो. 
इस में ज़रा सी भी लग़ज़िश, ख़ुदाई को शैतान बना देती है. 
ख़ुदा और शैतान ही व्यक्तित्व के दो आकार हैं.
 ख़ुदाई की हद है, शैतानियत की कोई हद नहीं. 
शैतानियत चंगेज़ भी बन सकता है और हिटलर भी , 
मगर अपने चुने हुए ख़ुदा की एक हद है, 
कि वह दूसरों में भी ख़ुद को पाता है.
वह अपनी ख़ुदाई का एलान भी नहीं कर सकता.  
इंसानी समाज का एक ही हल है कि वह ख़ुद को पहचाने और ख़ुदा बन जाए.
कण कण में भगवान है, यह ख़ुदा की अधूरी पहचान है. 
पूरी पहचान यह है कि जन जन में भगवान है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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