Friday 19 June 2020

हलाल + कोरोना के मुजरिम

हलाल 

शारीरिक मेहनत और मशक़्क़त से अर्जित की हुई रोटी को हलाल कहते हैं. 
अकबर ने भंगियों को "हलाल खो़र" का रुतबा दिया था. 
हलाल. आम भाषा में क़त्ल समझा जाता है. मगर ऐसा नहीं है.
इस्लाम ने ऐसे सभी पवित्र शब्दों का इस्लामी करण कर लिया 
जिससे शब्दों का अर्थ कुछ का कुछ हो गया. 
पशु पक्षी को जिबह करने से पहले "बिस्मिल्लाह अल्लाह  हु अकबर" 
तीन मर्तबा पढ़ लो, तो मांस हलाल हो जाएगा वरना हराम. 
हलाल और झटका की फर्क़ मुस्लिम और सिक्खों के दरमियान ख़ूब चलता है. 
इस तरह से हलाल का मतलब क़त्ल करना हो गया 
जब कि इस शब्द का मतलब है मुक़द्दस कमाई. 
गद्दी पर बैठे साहूकार और कमीशन एजेंट की कमाई हलाल नहीं हो सकती, 
क़ानूनन जायज़ हो सकती है. 
हलाल को रोटी खाने वाले को किसी धर्म या मज़हब की ज़रूरत नहीं, 
उनको ज़रुरत है चैन की नींद सोने की.
कोरोना वायरस हलाल खो़रों से दूर भागते हैं. 
उनके शरीर को छूते ही वायरस की मौत हो जाती है, 
बल्कि वह मेहनत करने शरीर में वह वेक्सीन बन जाते हैं, 
देखें सड़कों और रेलवे पर लाखों मज़दूरों की भीड़ आपस में पास पास चलते हुए मंज़िल तय करते हैं, कोई कोरोना संक्रमित नहीं, 
हाँ थकन और भूक से वह दम तोड़ते हैं मगर कोरोना से नहीं. 
इस गर्दिश में देश भर में लगभग 5 करोड़ हलाल खो़र हैं 
मगर कोई कोरोना पीड़ित नहीं,

कोरोना के मुजरिम 

वैश्विक स्तर पर देशों में कोरोना के करण जो भी हो, 
भारत में इसके विस्तार को तबलीग़ी कोरोना कहा जाएगा. 
मुस्लिम समाज के लिए यह जमाअत क़ौमी प्रवाह के इर्द-गिर्द रुके हुए पानी के गड्ढे होते है जो सड़ कर परिवेश को दूषित करते हैं. रचनात्मक काम तो दरकिनार, 
यह काम ही नहीं करते हैं. 
अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को अल्लाह के हवाले करके प्रयाटक बन जाते हैं. 
देश में इनके कारण इतनी बड़ी त्रासदी हो गई है, 
तो इसकी सज़ा इनको मिलनी ही चाहिए. 
इनके मरकज़ (केंद्र) को आधुनिक रसायन विधि से किसी घोषित तारिख़ में, 
मन्ज़र ए आम पर ध्वस्त कर देना चाहिए ताकि लोगों को इबरत हो.
हर जमाअती को इसकी सज़ा मिलनी चाहिए. 
तबलीग़ी जमाअत को प्रतिबंधित करना चाहिए.
मगर सरकार कुछ नहीं करेगी 
क्यूंकि हिन्दू समाज में इनके मुक़ाबिले में दस गुना संघ और संगठन हैं, 
नाराज़ हो जाएंगे. इनके ज़ोर पर ही सरकार क़ायम है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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