Wednesday 18 April 2018

सूरह हूद-११ (क़िस्त -1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह हूद-११ 
(क़िस्त -1)

मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत
मुसलमानों में दो तबके तअलीम याफ़्ता कहलाते हैं, 
पहले वह जो मदरसे से फ़ारिग़ुल  तालीम हुवा करते हैं और समाज को दीन की रौशनी (दर अस्ल अंधकार) में डुबोए रहते हैं, 
दूसरे वह जो इल्म जदीद पाकर अपनी दुन्या संवारने में मसरूफ़ हो जाते हैं. 
मैं यहाँ दूसरे तबक़े को ज़ेरे-बहस लाना चाहूँगा. 
इनमें जूनियर क्लास के टीचर से लेकर यूनिवर्सिटीज़ के प्रोफ़सर्स तक और इनसे भी आगे डाक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट तक होते हैं. 
इब्तेदाई तअलीम में इन्हें हर विषय से वाक़िफ़ कराया जाता है जिस से इनको ज़मीनी हक़ीक़तों की जुग़राफ़ियाई और साइंसी मालूमात होती है. 
ज़ाहिर है इन्हें तालिब इल्मी दौर में बतलाया जाता है कि यह ज़मीन फैलाई हुई चिपटी रोटी की तरह नहीं बल्कि गोल है. 
ये अपनी मदार पर घूमती रहती है, न कि साक़ित है. 
सूरज इसके गिर्द तवाफ़ नहीं करता बल्कि ये सूरज के गिर्द तवाफ़ करती है. 
दिन आकर सूरज को रौशन नहीं करता बल्कि इसके सूरज के सामने आने पर दिन हो जाता है. आसमान कोई बगैर खम्बे वाली छत नहीं बल्कि ला महदूद है और इन्सान की हद्दे नज़र है. 
इनको लैब में ले जाकर इन बातों को साबित कर के समझाया जाता है ताकि इनके दिमाग़ से धर्म और मज़हब के अंध विश्वास ख़त्म हो जाएँ.
इल्म की इन सच्चाइयों को जान लेने के बाद भी यह लोग जब अपने मज़हबी जाहिल समाज का सामना करते हैं 
तो इन के असर में आ जाते हैं. 
चिपटी ज़मीन और बग़ैर ख़म्बे की छतों वाले वाले आसमान की झूटी आयतों को कठ मुल्लों के पीछे नियत बाँध कर क़ुरआनी झूट को ओढने बिछाने लगते हैं. 
सानेहा ये है कि यह हज़रात अपने क्लास रूम में पहुँच कर फिर साइंटिस्ट सच्चाइयां पढ़ाने लगते हैं. 
ऐसे लोगों को मुनाफ़िक़ कहा गया है, यह तबका मुसलमानों का उस तबक़े से जो ओलिमा कहे जाते हैं दस गुना क़ौम के मुजरिम है. 
सिर्फ़ ये लोग अपनी पाई हुई तअलीम का हक़ अदा करें तो सीधी-सादी अवाम बेदार हो सकती है. मुनाफ़िक़ ने हमेशा इंसानियत को नुक़सान पहुँचाया है.
चललिए क़ुरआनी मिथ्य का मज़ा चक्खें - - -

''अलारा''
मोहमिल, अर्थहीन शब्द जिसका मतलब तथा-कथित अल्लाह को ही मालूम है. 
मुसलमान इसका उच्चारण छू-छटाका की नक़्ल में करते है.

''क़ुरआन एक ऐसी किताब है जिसकी आयतें मुह्किम की गई हैं फिर साफ़ साफ़ बयान की गई हैं.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (१)
क़ुरआन की हांड़ी में जो ज़हरीली खिचड़ी पकाई गई है उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे गए हैं जिसका एक नावाला भी बग़ैर मूज़ी ओलिमा के दिए हुए मक्र के मीठे घूँट के हलक़ से नीचे उतारना मुमकिन नहीं।

''एक हकीम बा ख़बर की तरफ़ से है, ये कि अल्लाह तअला के सिवा किसी की इबादत मत करो. मैं तुम को अल्लाह तअला की तरफ़ से डराने वाला और बशारत देने वाला हूँ.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (२)

अल्लाह को वज़ाहत करने की ज़रुरत पड़ रही है कि वह हकीम बा ख़बर है, यह ज़रुरत मुहम्मद ने अपनी बेवक़ूफ़ाना सोच के तहत की है, 
कहना चाहिए था आगाह बाख़बर या हकीम बा हिकमत. 
ख़बर भी कैसी बेहूदा कि ख़ुद अल्लाह कहता है कि अल्लाह तअला के सिवा किसी की इबादत मत करो? फिर ख़ुद कहते है 
''मैं तुम को अल्लाह तअला की तरफ़ से डराने वाला और बशारत देने वाला हूँ.'' 
सितम ये कि इसे भी कलाम इलाही कहते हैं. 

''मुहम्मद माहौल का जायज़ा लेकर एक एक फ़र्द के तौर तरीक़े देख कर अल्लाह से वहियाँ नाज़िल करते हैं. लोगों को गुमराह करते हैं कि दुन्या दारी को तर्क करके मुकम्मल तौर पर दीन की राह को अपना लो. अल्लाह से डरते रहने की राय देते हैं. अपनी नबूवत पर इनका यक़ीन कामिल है मगर लोग यक़ीन नहीं करते.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (३-६)

हम ख़ुद को कुछ भी समझने लगें, क्या हक़ है मुझे कि अपनी ज़ात को सब से मनवाएं? तबलीग़ करके, तहरीक चला के, लड़ झगड़ के, क़त्लो ग़ारत गरी करके, जेहाद करके और तालिबानी बन के ?

''अल्लाह छ दिनों में कायनात की तकमील को फिर दोहराता है, 
इसमें एक नई बात जोड़ता है कि इसके पहले अर्श पानी पर था 
ताकि तुम्हें आज़माए कि तुम में अच्छा अमल करने वाला कौन है?''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (७)

एक साहब एक बड़े इदारे में डाक्टर हैं, 
फ़रमाने लगे कि क़ुरआन को समझना हर एक के बस की बात नहीं. 
बड़े रुतबे वाले हैं, मशहूर फ़िजीशियन हैं, 
बीवी और बच्चियों को सख़्त पर्देदारी में रखते हैं. 
काश मज़कूरह आयत को रख कर मैं उन से क़ुरआन को समझ सकता.
ग़ौर तलब है कि मज़कूरह आयत में मुहम्मदी अल्लाह को तमाज़ते-गुफ़्तुगू भी नहीं है 
कि वह क्या बक रहा है? 
अर्श पानी पर था तो फ़र्श कहाँ था? 
क्या मुहम्मद के सर पे जहाँ लोग आज़माइश का अमल करते थे ? 
बड़ा पुख्ता सुबूत है मुहम्मद के मजनू होने का.

*मुहम्मद अपनी शायरी पर नाज़ करते हुए कहते हैं - - -
'' काफ़िर क़ुरआन को सुनकर कहते हैं यह तो निरा और साफ़ जादू है.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत  (७)

मगर शरअ (धर्म विधान) और शरह (व्याख्या) दोनों के लिए अनपढ़ नबी ने मुश्किल खड़ी कर दी है. मुहम्मद ने अपने कलाम में जादूई असर बतला कर कलाम की तारीफ़ की है 
मगर शरअन जादू का असर झूट का असर होता है, 
इसलिए क़ुरआन झूठा साबित हो रहा है, 
इस लिए अय्यार आलिम यहाँ नौज़ बिल्लाह कहकर अल्लाह के कलाम की इस्लाह करने लगते हैं, 
मुहम्मद के कलाम में न जादूई असर है न सुब्हान अल्लाह, है तो बस नौज़ बिल्लाह है. 

*क़यामत की रट सुनते सुनते थक कर काफ़िर कहते हैं - - -
''इसे कौन चीज़ रोके हुए है ? आए न - - -'' 
मुहम्मद कहते हैं 
''याद रखो जिस दिन वह अज़ाब उन पर आन पड़ेगा, फिर टाले न टलेगा और जिसके साथ वह मज़ाक़ कर रहे हैं वह आ घेरेगा.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (८)

चौदहवीं सदी हिजरी भी गुज़र गई, कि क़यामत की मुहम्मदी पेशीनगोई थी, डेढ़ हज़ार साल गुज़र गए हैं, क़यामत नहीं आई. 
इस्लाम दुन्या में ज़वाल पिज़ीर और क़यामत ज़दः भी हो चुका है, 
दीगर क़ौमें मुसलसल उरूज पर हैं, क़यामत का अता पता नहीं? 
कई मुल्कों पर मुसलमानों पर ज़रूर क़यामत आ कर चली गई मगर अल्लाह का क़यामती वादा अभी भी क़ायम है और हमेशा क़ायम रहने वाला है. 

''अगर हम इन्सान को अपनी मेहरबानी का मज़ा चखा कर छीन लेते हैं तो वह न उम्मीद और ना शुक्रा हो जाता है और जब किसी मेहरबानी का मज़ा चखा देते हैं तो इतराने और शेखी बघारने लग जाता है.''
सूरह हूद -११ पारा १२ आयत (९-११)
ऐसी बातें कोई खुदाए अज़ीम तर नहीं बल्कि एक कम ज़र्फ़ इंसान ही कर सकता है. 
साथ साथ उसका बद अक़ल होना भी लाज़िम है.
मुसलामानों! 
क्या तुम्हारा अल्लाह ऐसी ही बकवास करता है ?




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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