Friday 6 April 2018

Soorah taubah 9 – Q- 5

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह-ए-तौबः 9
(क़िस्त-5)

सूरह-ए-तौबः एक तरह से अल्लाह की तौबः है . 
अरबी रवायत में किसी नामाक़ूल, नामुनासिब, नाजायज़ या नाज़ेबा काम की शुरूआत अल्लाह या किसी मअबूद के नाम से नहीं की जाती थी, 
आमद ए इस्लाम से पहले यह क़ाबिल ए क़द्र अरबी क़ौम के मेयार का एक नमूना था. 
क़ुरआन में कुल 114 सूरह हैं, एक सूरह-ए-तौबःको छोड़ कर बाक़ी 113 सूरतें - - -
"आऊज़ो बिल्लाहे मिनस शैतानुर्र्र्जीम , बिमिल्लाह हिररहमान निर रहीम " से शुरू होती हैं . 
वजह ? सिर्फ़ सूरह-ए-तौबः क्यूँ अल्लाह के नाम से नहीं ?
क्यूंकि सूरह तौबः में ख़ुद अल्लाह दग़ा बाज़ी करता है इस लिए अपने नाम से सूरह को शुरू नहीं करता.  

बक़ौल मुहम्मद, क़ुरआन अल्लाह का कलाम है तो इंसानी समाज का इसमें दख्ल़ क्यूँ ? 
क्या अल्लाह भी समाजी बंदा है ?



बुज़दिलान-ए इस्लाम, 
इस्लाम की सड़ी गली लाश को नोच नोच कर खाने वाले यह गिद्ध सच्चाई से इस क़द्र हरासां हैं कि बौखलाहट में सरकार से सिफ़ारिश कर रहे हैं कि तसलीमा नसरीन को मुल्क बदर किया जाए. 
यह हराम ख़ोर जिनकी गिज़ा ईमान दारी है, जिसे खाकर पी कर और अपनी गलाज़त में मिला कर यह फ़ारिग हो जाते हैं, यह समझते हैं कि तसलीमा नसरीन को हिदोस्तान से निकलवा हर बेफ़िक्र हो जाएँगे कि इन्हों ने सच्चाई को दफ़्न कर दिया. कोई भी इनमें मर्द नहीं कि तसलीमा नसरीन की किसी बात का का दलील के साथ जवाब दे सके. 
इनका कुरान कहता है - - - 



"काफ़िरों को जहाँ पाओ मारो, बाँधो, मत छोड़ो जब तक कि इस्लाम को न अपनाएं."
"औरतें तुम्हारी खेतियाँ है, इनमे जहाँ से चाहो जाओ."
"इनको समझाओ बुझाओ, लतियाओ जुतियाओ फिर भी न मानें तो इनको अंधेरी कोठरी में बंद कट दो, 
हत्ता कि वह मर जाएँ."
"काफ़िर की औरतें बच्चे मिन जुमला काफ़िर होते हैं, यह अगर शब ख़ून में मारे जाएँ तो कोई गुनाह नहीं."
इन जैसे सैकड़ों इंसानियत दुश्मन पैगाम इन जहन्नमी ओलिमा को इनका अल्लाह देता है.



अब चलिए क़ुरआनी ख़ुराफ़ात में - - - -



"मुनाफ़िक़ वह लोग हुवा करते थे जो मुहम्मदी तहरीक में अपनी अक़्ल का दख्ल़ भी रखते थे, 
आँख बंद कर के मुहम्मद की हाँ में हाँ नहीं मिलाया करते थे, 
मुहम्मद की जिहालत और लाइल्मी पर मुस्कुरा दिया करते थे और 
उनको टोक कर बात की इस्लाह कर दिया करते थे. 
बस ऐसे मुसलमान हुए लोगों से बजाए इसके कि ख़ुदसर मुहम्मद उनके मशविरों का कुछ फ़ायदा उठाते, सीधे उनको जहन्नमी कह दिया करते थे. 
काफ़िर तो उनके खुले मुख़ालिफ़ थे ही, उनसे जेहाद का एलान था मगर यह मुनाफ़िक़ जो छिपे हुए दुश्मन हुवा करते थे वह हमेशा मुहम्मद के लिए सर दर्द बने रहे. 
यही लोग अक्सर समझदार, तालीम याफ़्ता और साहिब ए हैसियत हुवा करते थे. 
होशियार मुहम्मद को डर लगा रहता कि कही इन में से कोई इन से आगे न हो जाए और इनकी पयंबरी झटक न ले, इस लिए क़ुरआन में इन को कोसते काटते ही इन की कटी.
मुहम्मद का क़ुरआनी अंदाज़-ए-बयान एक यह भी है कि उनकी बात न मानने वाला सब से बड़ा ज़ालिम होता है, अक्सर क़ुरआन में यह जुमला आता है - - - 
''उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट बांधता हो?''
किसी बात को न मानना ज़ुल्म कहाँ ठहरा ?
बात को ज़बरदस्ती मनवाना ज़रूर ज़ुल्म है. जैसा कि इस्लाम जेहादी तशद्दुद से ख़ुद को मनवाता है.
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (६५-६९)



''क्या इन लोगों को इसकी ख़बर नहीं पहुँची जो इन लोगों से पहले हुए, जैसे क़ौम नूह, क़ौम आद, क़ौम समूद और क़ौम इब्राहीम और अहले मुदीन और उलटी हुई बस्तियाँ कि इन के पास इनके पयम्बर साफ़ निशानियाँ लेकर आए, सो अल्लाह तअला ने इन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन वह खुद अपनी जानों पर ज़ुल्म करते थे.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (७०)

इन उलटी हुई बस्तियों की कहानियां तौरेत में ऐसी हुआ करती हैं कि ज़ालिम और जाबिर मूसा जब मिस्र से यहूदियों को लेकर एक फ़रेब के साथ मिस्रियों को लूट कर फ़रार हुवा तो बियाबान जंगल में पनाह गुज़ीन हुवा जहाँ मन्ना (एक तरह का आटा) और बटेरों पर बीस साल तक गुज़ारा किया. 
बीस साल बाद जब नई नस्ल की फ़ौज तैयार करली तो इर्द गिर्द के मुकामी बाशिंदों पर जो कि उमूमन फ़िलिस्ती हुआ करते थे, हमला शुरू कर दिया. मूसा का तरीक़ा होता कि बस्ती में जवान मर्द औरत ही नहीं बूढ़े और बच्चे भी तहे-तेग़ कर दिए जाते थे, हत्ता कि कोई जानवर भी जिंदा न बचता था. उसके बाद बस्ती को आग से तबाह करके उस पर दो यहूदी सिपाहियों का पहरा हमेशा हमेशा के लिए बिठा दिया जाता था ताकि बस्ती दोबारा आबाद न होने पाए..
यह बातें तौरेत में (old testament ) में रोज़े रौशन की तरह देखी जा सकती हैं. 
उम्मी मुहम्मद अपने गढ़े हुए पयम्बरों की यही निशानियाँ क़ुरआन में बार बार गिनवा रहे हैं. 
इन्हीं बस्तियों में क़ौम नूह, क़ौम आद, क़ौम समूद और क़ौम इब्राहीम की नस्लें भी बसा करती थीं.
मुहम्मद ने बनी नुज़ैर की बस्ती को मूसा की तर्ज़ पर ही बर्बाद करने की कोशश की थी जिस पर ख़ुद उनके ख़िलाफ़ उनके ख़ेमे से ही आवाज़ बुलंद हुई और उनको अल्लाह की वही (वहयी=आकाश वाणी) के नुज़ूल का सहारा लेना पड़ा, कि बनी नुज़ैर के बाग़ात को जड़ से कटवा देना और उनके घरों में आग ख़ुद उनके हाथों से लगवाना अल्लाह का हुक्म था.

''ए नबी! कुफ़्फ़ारऔर मुनाफ़िक़ीन से जेहाद कीजिए और उन पर सख़्ती  कीजिए, उनका ठिकाना दोज़ख है और वह बुरी जगह है. वह लोग क़समें खा जाते हैं कि हम ने नहीं कही हाँलाकि उन्हों ने कुफ़्र की बात कही थी और अपने इस्लाम के बाद काफ़िर हो गए.- - -सो अगर तौबा करलें तो बेहतर होगा और अगर रू गरदनी की तो अल्लाह तअला उनको दुन्या और आख़रत में दर्द नाक सज़ा देगा और इनका दुन्या में कौई यार होगा न मददगार.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (७२-७४)

मुहम्मद का अल्लाह डरा रहा है, धमका रहा है, फुसला रहा है और बहला रहा है, हालाँकि वह चाहे तो दम भर में लोगों के दिलों को मोम करके अपने इस्लाम कि बाती जला दे मगर मुहम्मद के साथ रिआयत है कि उनकी पैग़म्बरी का सवाल है और कुरैशियों की रोज़ी रोटी का.
शर्री मुहम्मद के सर में शर अल्लाह के नाम पर जेहाद बन कर समा गया था. आगे क़ुरआनी आयतें इन्हीं शर्री बहसों को लिए हुए चलती हैं, 
जेहाद मस्जिद में बैठे हुए समझदार मुनाफ़िक़ से, 
जेहाद पड़ोस में रहने वाले ग़ैरत मंद मुनकिर से, 
जेहाद, मोहल्ले में रहने वाले ज़हीन काफ़िर से, 
जेहाद बस्ती के क़दीमी बाशिंदे मुशरिक से, 
जेहाद साहब ए किताब ईसाइयों से, 
जेहाद साहिब ए ईमान और साहिबे रसूल मूसाइयों से.  
इतना ही नहीं जो मुसलमान ग़लती से इस्लाम क़ुबूल कर चुका है उसकी मुसीबत दोगुनी हो गई थी. अपनी मेहनत और मशक़्क़त से अगर उसने अपनी कुछ हैसियत बनाई है तो वह भी मुहम्मद की आँखों में चुभती है, वस चाहते हैं कि वह अपना माल अल्लाह के हवाले करे 
और ग़ायबाना अल्लाह बने बैठे हैं जनाब ख़ुद.मुहम्मद क़ुरआन में मुसलमानों को समझाते हैं कि बद अहद लोग अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह अगर उन्हें माल ओ मतअ से नवाज़े तो बदले में वह अल्लाह के नाम पर ख़ूब ख़र्च करेंगे 
और जब भोंदू अल्लाह उनके झाँसे में आ जाता है और उनको माल,टाल से भर देता है तो वह अल्लाह को ठेंगा दिखला देते हैं. 
मुहम्मद कहते हैं हालाँकि अल्लाह ग़ैब दान है और ऐसे लोग ही जहन्नम रसीदा होंगे.
२५ साल तक बकरियाँ चराने वाला और उसके बाद जोरू माता की ग़ुलामी में रह कर मुफ़्त की रोटी तोड़ने वाला कठ मुल्ला मुसलमानों को ऐसी तिकड़म भरी क़ुरआन के सिवा और क्या दे सकता है?
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (७५ -८१)

''और इनमें (जेहाद से ग़ुरेज़ करने वालों) से अगर कोई मर जाए तो उस पर कभी नमाज़ मत पढ़ें, न उसके क़ब्र पर कभी खड़े होएँ क्यूं कि उसने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और यह हालात ए कुफ़्र में मरे. हैं''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (८४)

इब्नुल वक़्त (समय के संतान) ओलिमा और नेता यह कहते हुए नहीं थकते कि इस्लाम मेल मोहब्बत, अख़वत और सद भाव सिखलता है, 
आप देख रहे हैं कि इस्लाम ज़िन्दा तो ज़िन्दा मुर्दे से भी नफ़रत सिखलाता है. 
कम लोगों को मालूम है कि चौथे ख़लीफ़ा उस्मान ग़नी मरने के बाद इसी नफ़रत के शिकार हो गए थे, उनकी लाश तीन दिनों तक सड़ती रही, बाद में यहूदियों ने अज़ राह ए इंसानियत उसको अपने क़ब्रिस्तान में दफ़न किया. 



''और जब कोई टुकड़ा क़ुरआन का नाज़िल किया जाता है कि तुम अल्लाह पर ईमान लाओ और इस के रसूल के हमराह होकर जेहाद करो तो इनमें से मक़दूर वाले आप से रुख़सत माँगते हैं और कहते हैं हमको इजाज़त दीजिए कि हम भी यहाँ ठहेरने वालों के साथ हो जाएँ.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (८६)
सूरह तौबह से पहले अल्लाह ने इंसानी ख़ून ख़राबे से तौबः किया है, 
फिर ऐसी बातें ? 
तभी तो अपने नाम से सूरह को शुरू करने की इजाज़त नहीं दी. 
मुहम्मद कहते हैं 



''और जब कोई टुकड़ा क़ुरआन का नाज़िल किया जाता है कि - - - '' 
बाकी सब क़ुरआन तो मुहम्मद की बकवास है. 
मुसलमानों को कैसे समझाया जाए कि क़ुरआन उनको गुमराह किए हुए है.मुहम्मद अपनी जुबान को उस ख़ुदाए बरतर के कान्धों पर रख कर कैसी ओछी ओछी बातें कर राहे हैं- - -
''वह लोग खाना नशीन औरतों के साथ रहने पर राज़ी हो गए. इनके दिलों पर मोहर लग गई जिसको वह समझते ही नहीं.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (८७)

समझने तो नहीं देते ये माहिर ए क़ुरआन, मुल्ला और मोलवी जो इसको वास्ते तिलावत ही महफूज़ किए हुए हैं, समझने समझाने को मना करते है.
.मुहम्मद की जेहादी तिजारत और उसके फायदों की शोहरत देहातों में दूर दूर तक फैल गई है. बेरोज़गार नवजवान में उनकी लूट में मिलने वाले माल ए ग़नीमत की बरकतें गाँव के फिज़ा को महका रही हैं, गंवार रालें टपकते हुए जूक़ दर जूक़ मदीने भागे चले आ राहे हैं. 
मुहम्मद को यह घाटे का सौदा गवारा नहीं हाँला कि देहाती पत्थर के बुतों को तर्क करके हवाई बुत अल्लाह वाहिद को पूजने पर राज़ी हैं मगर मुहम्मद को इन ख़ाली हाथ आने वाले मुसलामानों की कोई ज़रुरत नहीं. 
मुहम्मद को जेहाद के लिए पहले माल चाहिए बाद में जान, अगर बच गए तो अल्लाह का मुक़द्दमा कि उसको देखना बाक़ी रह जायगा कि जेहादी ने दिल से जेहाद किया या बे दिली से. इन देहातियों को तो फ़ौज में भारती चाहिए वह भी गुज़ारा भत्ता एडवांस में.
कहाँ तो अल्लाह ने एक नाबीना से बे इल्तेफ़ाती पर मुहम्मद को फटकार लगाई थी और आज जुज़ामियों को बाहर से ही कहला देते हैं कि वापस जाओ कि समझो तुमसे बैत (हाथ पर हाथ देकर दीक्षा लेना) कर लिया. 
यह पैगम्बर थे या छुवा छूत की बीमारी.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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