Wednesday 25 December 2019

क़ुरआन की चुनौतियाँ


 क़ुरआन की चुनौतियाँ

आम मुसलमानों को कहने में बड़ा गर्व होता है कि क़ुरआन की एक आयत (वाक्य) भी कोई इंसान नहीं बना सकता क्यूंकि ये अल्लाह का कलाम है. 
दूसरी फ़ख़्र की बात ये होती है कि इसे मिटाया नहीं जा सकता क्यूंकि यह सीनों में सुरक्षित है, (अर्थात कंठस्त है.) 
यह धारणा भी आलिमों द्वारा फैलाई गई है कि इसकी बातों और फ़रमानों को 
आम आदमी ठीक ठीक समझ नहीं सकता, बग़ैर आलिमों के. 
सैकड़ों और भी बे सिरो-पैर की ख़ूबियाँ इसको प्रचारित करती हैं.
सच तो है कि किसी दीवाने की बात को कोई सामान्य आदमी 
दोहरा नहीं सकता और आपकी अख़लाकी जिसारत भी नहीं कि 
किसी पागल को दिखला कर मुसलमानों से कह सको कि यह रहा, 
बडबडा रहा है क़ुरआनी आयतें. 
एक सामान्य आदमी भी नक़्ल में मुहम्मद की आधी अधूरी और अर्थ हीन बातें स्वांग करके दोहराने पर आए तो दोहरा सकता है, क़ुरआन की बकवासें, 
मगर वह मान कब सकेंगे. 
मुहम्मद की तरह उनकी नक़्ल उस वक़्त लोग दोहराते थे मगर झूटों के बादशाह कभी मानने को तैयार न होते. 
हिटलर के शागिर्द मसुलेनी ने शायद मुहम्मद की पैरवी की हो कि झूट को बार बार दोहराव, सच सा लगने लगेगा. 
मुहम्मद ने कमाल कर दिया, झूट को सच ही नहीं बल्कि 
अल्लाह की आवाज़ बना दिया, तलवार की ज़ोर और माले-ग़नीमत की लालच से. 
मुहम्मद एक शायर नुमा उम्मी थे, और शायर को हमेशा यह भरम होता है कि उससे बड़ा कोई शायर नहीं, उसका कहा हुवा बेजोड़ है.
क़ुरआन के तर्जुमानों को इसके तर्जुमे में दातों पसीने आ गए, 
मौलाना अबू कलाम आज़ाद सत्तरह सिपारों का तर्जुमा करके, 
मैदान छोड़ कर भागे. 
मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने ईमानदारी से इसको शब्दार्थ में परिवर्तित किया और भावार्थ को ब्रेकेट में अपनी राय देते हुए लिखा, 
जो नामाक़ूल आलिमों को चुभा. 
इनके बाद तो तर्जुमानों ने बद दयानती शुरू कर दी और 
आँखों में धूल झोंकना उनका ईमान और पेशा बन गया.
दर अस्ल इस्लाम की बुनियादें झूट पर ही रख्खी हुई, 
अल्लाह बार बार यक़ीन दिलाता है कि उसकी बातें इकदम सही सही हैं, 
इसके लिए वह कसमें भी खाता है. 
इसी झूट के सांचे को लेकर ओलिमा चले हैं. 
इनका काम है मुहम्मद की बकवासों में मानी ओ मतलब पैदा करना. 
इसके लिए तरफ़सीरें (व्याख्या) लिखी गईं जिसके जरीए शरअ और आध्यात्म से जोड़ कर अल्लाह के कलाम में मतलब डाला गया. 
सबसे बड़ा आलिम वही  है जो इन अर्थ हीन बक बक में किसी तरह अर्थ पैदा कर दे. मुहम्मद ने वजदानी कैफ़ियत (उन्माद-स्तिथि) में जो मुंह से निकाला 
वह क़ुरआन हो गया, 
अब इसे ईश वाणी बनाना इन रफ़ुगरों का काम है.
जय्यद आलिम वही होता है जो क़ुरआन को जा बेजा दलीलों के साथ 
इसे ईश वाणी बनाए.
मुसलमान कहते हैं क़ुरआन मिट नहीं सकता कि ये सीनों में क़ायम और दफ़्न है. 
यह बात भी इनकी क़ौमी बेवक़ूफ़ी बन कर रह गई है, 
बात सीने में नहीं याद दाश्त यानी ज़हनों में अंकित रहती है 
जिसका सम्बन्ध सर से है. 
सर ख़राब हुआ तो वह भी गई समझो. 
जिब्रील से भी ये इस्लामी अल्लाह ने मुहम्मद का सीना धुलवाया था, 
चाहिए तो यह था कि धुलवाता इनका भेजा. 
रही बात हाफ़िज़े (कंठस्त) की, मुसलमान क़ुरआन को हिफ्ज़ कर लेते हैं 
जो बड़ी आसानी से हो जाता है, 
यह फूहड़ शायरी की तरह मुक़फ़्फ़ा (तुकान्तित) पद्य जैसा गद्य है, 
आल्हा की तरह, गोया आठ साल के बच्चे भी इसके हाफिज़ हो जाते हैं, 
अगर ये शुद्ध गद्य में होता तो इसका हफ़िज़ा मुमकिन न होता.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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