Monday 9 December 2019

मुस्लिमो के लिए बेवा और तलाक़ शुदा


मुस्लिमो के लिए बेवा और तलाक़ शुदा 

 जब दस आदमी एक पर थूकें तो एक अकेला भी मायूस होकर ख़ुद पर शक करने लगता है और दस की ज़बान ज़बान ए ख़ल्क़ बन जाती है . 
कोई ज़रूरी नहीं कि एक अकेला ग़लत हो और बाक़ी दस सही .
मुसलमान बहु विवाह के लिए बदनाम है और तलाक के लिए रुस्वाए ज़माना .
मुस्लिम समाज में औरतें बेवा या अबला होने के बावजूद समाज से जुडी रहती थीं . पुराने ज़माने में ख़ास कर अरब मर्द जंगजू हुवा करते थे , 
मरते कटते अपनी औरतों को बेवा और बहनों को अनाथ छोड़ कर अल्ला को प्यारे हो जाते थे . समाज में कभी कभी नौबत यहाँ ताक पहुँच जाती कि मर्दों के मुक़ाबले औरते दो तीन ग़ुना हो जाती थी. इस सूरत में बचे हुए शादी शुद मर्दों के आगे उन औरतों को अपने निकाह में ले लेना समाजी तकाज़ा बन जाता . 
बेवा से शादी करना सवाब होता , इस पर बीवी भी शौहर का साथ देती .
रोज़ी दुश्वार हुवा करती थी घर में एक और औरत का आना शुभ था कि काम करने वाले हाथ बढ़ जाते. चूलह चक्की से लेकर चमड़ा पकाने का काम भी घरों में हुवा करता था. बेवाएं अपनी बरकत लेकर आतीं थीं . 
बेशक अधेड़ के साथ नव खेज़ बेवा ब्याह दी जाती थी. 
खानदान में कोई बेवा हुई तो रिशते तय्यार खड़े रहते .
इस तरह बेवा को सामाजिक संरक्षण ही नहीं , शारीरिक संरक्षण भी मिल जाता था .
इसके बर अक्स हिन्दू समाज को देखा जा सकता है , 
जहाँ बेवा को सत्ती माँ कहते हुए आग के हवाले कर दिया जाता था . 
कोई बाप भाई और बेटा अपने घर में विधवा को देखना पसंद नहीं करता , 
आज भी फ़ौरन आश्रम के हवाले कर देते है 
जहाँ उम्र के हिसाब से उनका शोषण होता है .
मुस्लिम में कहीं कोई आश्रम नहीं मिलता जहाँ वेवाओं को ले जा कर छोड़ आओ . अपनी औरतों को अपनी मर्यादा समझते हैं न कि भेड़ बकरी .
याद रख्खें दस की आवाज़  मिलकर सच्चाई को दबा तो सकती है 
मगर मिटा नहीं सकती . 
यही मुस्लिम समाज का हिन्दू समाज के लिए कडुवा सच है 
कि हर रोज़ उसे विसतार मिलता रहता है .
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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