Thursday 4 April 2019

खेद है कि यह वेद है (52)

खेद  है  कि  यह  वेद  है  (52)

इस यज्ञ के साधन भूत सोमरस की प्रेरणा से 
मैं स्तोताओं के लिए सुख दाता  इंद्र और अग्नि का वरण करता हूँ. 
वह इस यज्ञ में सोम पी कर तृप्त हों. 
मैं शत्रु बाधक, वृत्र नाशक, विजयी, अपराजित एवं 
अधिक मात्रा में अन्न  देने वाले इंद्र एवं अग्नि को बुलाता हूँ.
  तृतीय मंडल सूक्त 12(3)

ऐसा लगता है सारे देव गण इन पुजारियों के चाकर हैं जिनके इशारे पर यह यजमान के घर दौड़े चले आते हैं. मुर्ख यजमान के टुकड़े पर पलने वाले यह धूर्त हजारों वर्षों से मूरखों का दोहन कर रहे है. कुछ पाठकों को मेरी इन बातों में छेद  ही छेद दिखाई देता है, दू सरे पाठक उनका छेद पाट देते हैं, उनको ऐसा जवाब देते हैं कि फिर मुझे बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती.
**
हे अग्नि ! 
समस्त देव तुम्हीं में प्रविष्ट हैं, 
इस लिए हम यज्ञों में तुम से समस्त उत्तम धन प्राप्त करें .
तृतीय मंडल सूक्त 11(9)

यह कैसा वेद है जो हर ऋचाओं में अग्नि और इंद्र आदि देवों के आगे कटोरा लिए खड़ा रहता है. कभी अन्न मांगता है तो कभी धन. क्या वेद ज्ञान ने लाखों लोगों को निठल्ला नहीं बनाता है? धर्म को तो चाहिए इंसान को मेहनत मशक्कत और गैरत की शिक्षा दे, वेद तो मानव को मुफ्त खोर बनता है.
कौन सा चश्मा लगा कर वह पढ़ते है जो मुझे राय देते हैं कि इसे समझ पाना मुश्किल है.
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )


****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान


No comments:

Post a Comment