Friday 26 April 2019

सूरह क़द्र - 97 = سورتہ القدر

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह क़द्र - 97 = سورتہ القدر
(इन्ना अनज़लना फी लैलतुल क़द्र) 

यह क़ुरआन का तीसवाँ और आख़िरी पारा है. इसमें सूरतें ज़्यादः तर छोटी छोटी हैं जो नमाज़ियों को नमाज़ में ज़्यादः तर काम आती हैं. 
बच्चों को जब क़ुरआन शुरू कराई जाती है तो यही पारा पहला हो जाता है. इसमें 78 से लेकर114 सूरतें हैं जिनको (ब्रेकेट में लिखे ) उनके नाम से पहचान जा सकता है कि नमाज़ों में आप कौन सी सूरत पढ़ रहे हैं 
और ख़ास कर याद रखें कि क्या पढ़ रहे हैं.

मैं क़ुरआन को एक साज़िशी मगर अनपढ़ दीवाने  की पोथी मानता हूँ और मुसलामानों को इस पोथी का दीवाना.
एक गुमराह इंसान चार क़दम भी नहीं चल सकता कि राह बदल देगा, 
ये सोच कर कि शायद वह ग़लत राह पर ग़ुम हो रहा है. 
इसी कशमकश में वह तमाम उम्र गुमराही में चला करता है. 
मुसलमानों की ज़ेह्नी कैफ़ियत कुछ इसी तरह की है, 
कभी वह अपने दिल की बात मानता है, 
कभी मुहम्मदी अल्लाह की बतलाई हुई राह को दुरुस्त पाता है. 
इनकी इसी चाल ने इन्हें दर्जनों तबक़े में बाँट दिया है. 
अल्लाह की बतलाई हुई राह में ही रह कर वह अपने आपको तलाश करता है, कभी वह उसी पर अटल हो जाता है. 
जब वह बग़ावत कर के अपने नज़रिए का एलान करता है 
तो इस्लाम में एक नया मसलक पैदा होता है.
यह अपनी मक़बूलियत की दर पे तशैया (शियों का मसलक) से लेकर अहमदिए (मिर्ज़ा ग़ुलाम मुहम्मद क़ादियानी) तक होते हुए चले आए हैं. 
नए मसलक में आकर वह समझने लगते है कि हम मंजिल ए जदीद पर आ पहुंचे है, मगर दर अस्ल वह अस्वाभाविक अल्लाह के फंदे में नए सिरे से 
फंस कर अपनी नस्लों को एक नया इस्लामी क़ैद खाना और भी देते है.
कोई बड़ा इंक़लाब ही इस क़ौम को राह ए रास्त पर ला सकता है 
जिसमे कॉफ़ी ख़ून ख़राबे की संभावनाएं निहित है. 
भारत में मुसलामानों का उद्धार होते नहीं दिखता है 
क्यूंकि इस्लाम के देव को अब्दी नींद सुलाने के लिए हिंदुत्व के महादेव को अब्दी नींद सुलाना होगा. यह दोनों देव और महा देव, सिक्के के दो पहलू हैं.
मुसलामानों ! 
इस दुन्या में एक नए मसलक का आग़ाज़ हो चुका है, वह है तर्क ए मज़हब और सजदा ए इंसानियत. इंसानों से ऊँचे उठ सको तो मोमिन की राह को पकड़ो जो कि सीध सड़क है.  

"बेशक हमने क़ुरआन को शब ए क़द्र में उतारा है,
और आपको कुछ मालूम है कि शब ए क़द्र क्या चीज़ होती है,
शब ए कद्र हज़ार महीनों से बेहतर है,
इस रात में फ़रिश्ते रूहुल क़ुद्स अपने परवर दिगार के हुक्म से 
अम्र ए ख़ैर को लेकर उतरते हैं, सरापा सलाम है.
वह शब ए तुलू फ़जिर तक रहती है".
सूरह क़द्र  97  आयत (1 -5 ) 

नमाज़ियो !
मुहम्मदी अल्लाह सूरह में क़ुरआन को शब क़द्र की रात को उतारने की बात कर रहा है तो कहीं पर क़ुरआन माहे रमजान में नाज़िल करने की बात करता है, जबकि क़ुरआन मुहम्मद के ख़ुद साख़ता रसूल बन्ने के बाद उनकी आखरी साँस तक, तक़रीबन बीस साल चार माह तक मुहम्मद के मुँह से निकलता रहा.  
मुहम्मद का तबई झूट आपके सामने है. 
मुहम्मद की हिमाक़त भरी बातें तुम्हारी इबादत बनी हुई हैं, 
ये बड़े शर्म की बात है. 
ऐसी नमाज़ों से तौबा करो. 
झूट बोलना ही गुनाह है, 
तुम झूट के अंबार के नीचे दबे हुए हो. 
तुम्हारे झूट में जब जिहादी शर शामिल हो जाता है 
तो वह बन्दों के लिए ज़हर हो जाता है. 
तुम दूसरों को क़त्ल करने वाली नमाज़ अगर पढ़ोगे 
तो सब मिल कर तुमको ख़त्म कर देंगे. 
मुस्लिम से मोमिन हो जाओ, 
बड़ा आसान है. 
सच बोलना, सच जीना और सच ही पर जान देना 
बढ़ो और उसपर अमल करो, 
ये बात सोचने में पहाड़ जैसी लगती है, 
अमल पर आओ तो कोई रुकावट नहीं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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