Tuesday 16 April 2019

खेद है कि यह वेद है (64)

खेद  है  कि  यह  वेद  है  (64)
परम सेवनीय अग्नि की उत्तम कृपा मनुष्यों में उसी प्रकार परम पूजनीय है , 
जिस प्रकार दूध की कामना करने वाले देवों के लिए 
गाय का शुद्ध, तरल एवं गरम दूध 
अथवा गाय मांगने वाले मनुष्य को दुधारू गाय.
चतुर्थ मंडल सूक्त 6 

वेद कर्मी सदा ही लोभ से ओत-प्रोत रहते हैं. 
इनमें मर्यादा की कोई गरिमा कहीं नज़र नहीं आती. 
इनके देव भी लोभी और 
परम देव भी लोभी , 
एक कटोरा दूध के लिए इन देवों की राल टपकती रहती है.
**
महान अग्नि प्रातःकाल से प्रज्ज्वलित होकर ज्वाला के रूप में रहते हैं 
एवं अन्धकार से निकल कर अपने तेज के द्वारा यज्ञ स्थल पर जाते हैं. 
शोभन ज्वालाओं वाले एवं यज्ञ के लिए उत्पन्न अग्नि अपने अन्धकार नाशक तेज के द्वारा सभी यज्ञ गृहों को पूर्ण करते है.
दसवाँ मंडल सूक्त 1
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )

हिन्दू मानव डरपोक हो गया , जिसकी बड़ी वजेह है यह वेद पंक्तियाँ. मानव समाज की बड़ी दुश्मन है आग जो उसका सर्व नाश करती है. कहते हैं आग की तपिश वस्तु को शुद्ध कर देती है, मेरा मानना यह है कि यह शुद्धता और अशुद्धता, सब को समाप्त  कर देती है. वेद ने सब से बड़ा देव आग को माना है, हर दूसरा मन्त्र अग्नि देव को समर्पित है. डरपोक हिन्दू हज़ार साल तक इन्ही वेदों के कारण ग़ुलाम रहा.  

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment