Monday 7 May 2018

raad 13- Q3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह रअद  - 13 (मेघ नाथ) 
(क़िस्त -3) 


''ये लोग आफ़ियत से पहले मुसीबत का तक़ाज़ा करते हैं. आप का रब ख़ताएँ बावजूद इसके कि वह ग़लती करते हैं, मुआफ़ कर देता है और ये बात भी यक़ीनी है कि आप का रब सख़्त सज़ा देने वाला है. और कहते हैं इन पर मुअज्ज़ा क्यूँ नहीं नाज़िल हुवा. आप सिर्फ़ डराने वाले हैं. - - 
और अल्लाह को सब ख़बर रहती है जो कुछ औरत के हमल में रहता है और जो कुछ रह्म में कमी बेशी होती रहती है. और तमाम पोशीदा और ज़ाहिर को जानने वाला है, सब से बड़ा आलीशान है."
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (६-७)

''क़यामत कैसी होती है लाकर बतलाओ''
लोगों के इस मज़ाक़ पर मुहम्मद की ये आयत कैसी चाल भरी है, रिआयत और धमकी के साथ साथ. लोगों के मुअज्ज़े कि फ़रमाइश को टाल कर जवाब देते है कि वह तो बिलाऊवा हैं सिर्फ़ डराने वाले, 
बे सुर की तानते हैं कि अल्लाह औरत के गर्भ में झाँक कर सब देख लेता है कि क्या घट रहा है. 
और ख़ुद अपनी शान भी बघारता है कि बड़ा आली शान है. 
क्या नतीजा निकालते हो ऐ मुसलमानों! 
अल्लाह की इन ख़ुराफ़ाती बातों से ?

''हर शख़्स के लिए कुछ फ़रिश्ते हैं जिनकी बदली होती रहती है, कुछ इसके आगे कुछ इसके पीछे बहुक्म ए ख़ुदा फ़रिश्ते हिफाज़त करते रहते हैं. वाक़ई अल्लाह तअला किसी क़ौम की हालत में तग़य्युर नहीं करता जब तक वह लोग ख़ुद अपनी हालत को बदल नहीं देते और जब अल्लाह तअला किसी क़ौम पर मुसीबत डालना तजवीज़ कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता.''
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (११)

बाइबिल के क़ौल को अल्लाह का कलाम बतलाते हुए मुहम्मद कहते हैं, ''वाक़ई अल्लाह तअला किसी क़ौम की हालत में तग़य्युर नहीं करता जब तक वह लोग ख़ुद अपनी हालत को बदल नहीं देते'' 
'दूसरे लम्हे ही इसके ख़िलाफ़ अपनी क़ुरआनी जेहालात पेश कर देते हैं ''जब अल्लाह तअला किसी क़ौम पर मुसीबत डालना तजवीज़ कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता.''


''वह ऐसा है कि तुम्हें बिजली दिखलाता है जिस से डर भी होता है और उम्मीद भी, और वह बादलों को बुलंद करता है जो भरे होते हैं और रअद (मेघ नाथ) उसकी तारीफ़ के साथ उसकी पाकी बयान करता है और फ़रिश्ते इस के खौफ़ से और वह बिजलियाँ भेजता है, फिर जिस पर चाहे उन्हें गिरा देता है. और वह अल्लाह के बाब में झगड़ते हैं हालांकि वह बड़ा शदीदुल क़ुलूब है.''
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (१२-१३)

लाल बुझक्कड़ के गाँव से कोई हाथी रात को गुज़रा, सुब्ह गाँव वालों ने हाथी के पैरों के निशान देख कर हैरान हो गए कि इतना बड़ा पैर किसका हो सकता है? 
चलो मुखिया लाल बुझक्कड़ के पास. 
लाल बुझक्कड़ ने निशान को देख कर मस्ती से अपनी आयत गाई - - -
''बूझें बूझें लाल बुझक्कड़ और न बूझे कोय,
पांव माँ चकिया बांध के हिरन न कूदा होय.
ऐसी बातों का एहतराम ही इंसानी ज़ेहन कि पामाली है. 
मुहम्मद को किसी से सुनने में मिला होगा 
''शदीदुल कुलूब'' यानी किसी ने जमा सीगे़  (बहु वचन) के लिए कहा होगा जैसे सख़्त दिल जमाअत. मुहम्मद वाहिद (एक वचन) अल्लाह के लिए शदीदुल क़ुलूब का इस्तेमाल कर रहे हैं यानी अल्लाह शिद्दत के दिलों वाला है. 
अल्लाह एक है और उसके दिल बहुत से. 
इस्लामी गुंडे आलिमों को सब पता है मगर वह हर ऐसी लग्ज़िश की पर्दा पोशी करते हैं. 


''इसी ने आसमान से पानी नाज़िल फ़रमाया फिर नाले अपनी मिक़दार के मुवाफ़िक चलने लगे फिर सैलाब ख़श ओ ख़ाशाक को बहा लाया जो इस के ऊपर है. और जिन चीजों को आग के अन्दर ज़ेवरात और दीगर असबाब बनाने के लिए तपाते हैं, इस में भी ऐसा ही मैल कुचैल था और वह तो फेंक दिया जाता है. जो चीज़ लोगों के लिए कारामद है, ज़मीन में रहती है. अल्लाह तअला इसी तरह मिसाल बयान करता है.''

सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (१७)

मैं पहले भी इस बात को वाज़ेह कर चुका हूँ कि नाज़िल आफतें होती हैं, बरकतें नहीं. मुहम्मद इल्म से पैदल रहमतों को नाज़िला कहते हैं. इसी तरह पूरे क़ुरआन में उम्मी ने मुताबिक़ की जगह मुवाफ़िक़ लफ़्ज़  लिए हैं, कोई साहबे क़लम ईमान दारी के साथ अल्लाह के कलाम पर क़लम क्यूं नहीं उठाता? 
सैलाब में ख़श ओ ख़ाशाक़ नहीं हजारों की जाने चली जाया करती हैं और उम्र भर की जोड़ी गांठी पूँजी भी. आपकी इन भोंडी मिसालों को ही ओलिमा हवा दिए हुए हैं कि आप ने क़ुरान ए हकीम पेश किया है.

''और अगर कोई क़ुरआन होता जिसके ज़रिए पहाड़ हटा दिए जाते या इसके ज़रिए से ज़मीन जल्दी जल्दी तय हो जाती या इसके ज़रिए से मुरदों से बात करा दी जाती तब भी ये लोग ईमान न लाते, बल्कि सारा अख़्तियार अल्लाह को है. क्या फिर भी ईमान वालों को दिल को राहत नहीं कि अगर अल्लाह चाहता तो तमाम आदमियों को हिदायत देता और ये काफ़िर - - - (यह है अल्लाह की बद दुआएं,बद कलामी)
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (३१-३४)

किताबें पहाड़ नहीं हटातीं, न ही सफ़र में मददगार होती हैं और न मुरदों से बातें कराती हैं, हाँ! मगर क़ौमों में सदाक़त की नई राहें रौशन कर देती हैं. 
चीनी पैग़म्बर दाओ (या ताओ) कहता है - - - 



''जो कुछ भी मुकम्मल सच्चाई के साथ नहीं कहा जाता वह दरोग़ बाफ़ी है, 
इस कमज़ोरी से बचने में नाकाम होना जहन्नम में पड़ने के बराबर है''
''फ़ौज के पीछे कमज़ोर चलता है''
''सच्चा बहादर ज़ुल्म, ख़ुद सताई, मस्ती, मिस्कीनी और तैश से दूर रहता है.''
''कारे खैर में शोहरत से बचो और अपने काम में बदनामी से. दरमियाना रवी ही बेहतर है.'' ''दुन्या में ऐसे लोग कम हैं जो बिना बोले इल्म देते हैं और फ़िक्र की गहराइयों में डूब कर मह्जूज़ होते हैं.''



ऐ मुहम्मदी अल्लाह देख कि क़ुरान क्या होता है? 
तेरी बातों में मुकम्मल सच्चाई है क्या ? 
सच्चाई का अंश भी नहीं है. 
तूने तो बे ईमान कमज़ोरों की जेहादी फ़ौज बना रखी है. 
तू ज़ुल्म, ख़ुद सताई, मस्ती, मिस्कीनी और तैश के पास है. 
क़ुरआन में तू इतना बोला है कि दाओ ने सुन कर अपना सर पीट लिया होगा.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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