Friday 11 May 2018

Soorah raad 13- Q 4 Last

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह रअद  - 13 (मेघ नाथ) 
(क़िस्त -4) 

''और हम ने यकीनन आप से पहले कई रसूल भेजे और हम ने उनको बेवी और बच्चे भी दिए और किसी पैग़म्बर को अख़्तियार यह अम्र नहीं कि एक आयत भी बग़ैर ख़ुदा के हुक्म के ला सके. हर ज़माने के एहकाम हैं. अल्लाह तअला जिस को चाहे मौक़ूफ़ कर देते हैं जिसको चाहें क़ायम रखते हैं और असल किताब उन्हीं के पास है."
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत  (३८-३९)

यक़ीनन आपसे पहले एक रसूल जापान में संतो Shen Tao कहते हैं - - -
''खुदा को पाने का पहला यक़ीनी रास्ता है झूट, मक्र और अय्यारी को तर्क करना.''(जो आप में कूट कूट कर भरा हुवा है.)
''अल्लाह सादा लौही (सादगी) से प्यार करता है ख़ैरात, ज़कात और सदक़े से नहीं.'' (माले ग़नीमत के भूके अपने गरीबन में मुँह डालें)
''इबादत गाहों में तीन दिन रोज़ा रखने और एतकाफ़ में बैठने से बेहतर है दिन में कोई एक नेक काम'' (ख़ास कर मुसलमानों के लिए पैगाम)
''अगर वह ही (नेक काम) साफ़ नहीं जो अन्दर है, 
तो बाहर की सफ़ाई के लिए इबादत फुज़ूल है.''
(इस्लाम आज मुकम्मल और मुजस्सम फुज़ूल है)
''न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा बोलो.'' 
(गाँधी जी ने ये सीख संतो Shen तो से ही ली.)
''जन्नत और दोज़ख इन्सान के मन में है.'' 
(आप की गढ़ी हुई नहीं)
''सच के तौर तरीक़े पर अटल रहो ये ज़िन्दगी से भी क़ीमती है.''
(मुहम्मदी अल्लाह झूट का पैकर है)
''मत भूलो की ख़िलक़त (मानव जति) एक कुनबा है.'' 
(इसी का एक जुज़ मोमिन को होना चाहिए)

''क्या वह इस चीज़ को नहीं देखते हैं कि हम ज़मीन को हर तरफ़ से बराबर काम करते चले आ रहे हैं और अल्लाह हुक्म करता है, इसके हुक्म को कोई हटाने वाला नहीं और वह बड़ी जल्दी हिसाब लेने वाला है. काफ़िर लोग कह रहे हैं कि आप पैग़म्बर नहीं. आप फ़रमा दीजिए कि मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह तअला और वह शख़्स  जिसके पास किताब का इल्म है, काफ़ी गवाह है.''
सूरह रअद १३ पारा १३ आयत (४१+४३)

इन्हीं बातों से बेज़ार होकर एक ईरानी मुफ़क्किर मिर्ज़ा हुसैन अली १८४४ में तर्क इस्लाम करके जदीद तरीन मज़हब की बुनियाद रखी, कहता है - - -
*इन्सान बिरादरी सब एक है.रंग, नस्ल, तबका और मज़हब की वजेह से इन्सान में फर्क नहीं होना चाहिए. सब एक ही पेड़ के फल, एक ही डाल के पत्ते, एक ही चमन के फूल हैं.
*मज़हब साइंस और दलील का मुख़ालिफ़ न हो और इत्तेहाद का हामी हो.
*अम्न, इंसाफ़, तअलीम और ज़ुबान के किए आलमी तौर पर मुत्तहेद होना चाहिए.*जानिब दारी और तंग नज़री को छोड़ कर सदाक़त की आज़ादाना तलाश करनी चाहिए.
*वक़्त की शुरुआत है न आख़ीर, तवारीख़ छः हज़ार साल (आदम काल ) से नहीं, 
ला मतनाही सालों से है.
*इंसान हमेशा इन्सान से है जानवर से नहीं.
*ज़मीन पर पैदा सभी चीज़ें इन्सान के लिए होती हैं, 
जो ज़मीन पर अशरफ़ुल मख़्लूक़ात है.
ख़ुदा सबसे बरतर है, 
वह सब समझता है, 
उसे कोई नहीं समझता. 
वह अपने को बज़रिए कायनात ज़ाहिर करता है.
(मिर्ज़ा हुसैन अली १८४४ में तर्क इस्लाम करके जदीद तरीन मज़हब बहाई मज़हब की बुनियाद रखी.)



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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